जलोढ़ मृदा
इस लेख में जलोढ़ मृदा की विशेषताएँ, मध्य प्रदेश में इसका वितरण, इसकी उर्वरता एवं उपयोगिता का विस्तृत वर्णन किया गया है। साथ ही, मृदा अपरदन की समस्या, प्रभावित क्षेत्र और उससे बचाव के उपायों को भी स्पष्ट रूप से समझाया गया है।
जलोढ़ मृदा को दोमट मृदा भी कहा जाता है। इसका निर्माण हिमालयी तथा प्रायद्वीपीय नदियों द्वारा बहा कर लाये गए अवसादों से हुआ है।
इसमें नाइट्रोजन एवं ह्यूमस की मात्रा कम होती है, जबकि चूना, फॉस्फोरिक एसिड, जैव पदार्थों एवं पोटाश की प्रचुरता पायी जाती है।
इस मृदा की प्रकृति उदासीन होती है, क्योंकि इसका pH मान 7 होता है।
मध्य प्रदेश में इस मृदा का निर्माण चम्बल एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा बहाकर लाए गये कछारों (अवसादों) से होता है, इसलिए इसे कछारी मृदा भी कहते हैं। उर्वरता अधिक होने के कारण यह मृदा खाद्यान्न उत्पादन की दृष्टि से सबसे उपयोगी है।
यह मृदा मध्य प्रदेश के लगभग 3.35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल में पायी जाती है, जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 7.57% भाग है।
जलोढ़ मृदा राज्य के उत्तर-पश्चिमी भाग में स्थित भिण्ड, मुरैना, श्योपुर तथा ग्वालियर जिलों में पायी जाती है। यह मृदा गेहूँ, चना, सरसों, राई, जौ आदि फसलों के उत्पादन लिए उपयुक्त मानी जाती है।
जलोढ़ मृदा क्षेत्र में मृदा अपरदन
मृदा अपरदन का अर्थ है, बाह्य कारकों (वायु, जल या गुरुत्वीय विस्थापन) द्वारा मृदा कणों का अपने मूल स्थान से पृथक् होकर बह जाना।
मृदा अपरदन को रेंगती हुई मृत्यु (Creeping Death) भी कहा जाता है। मध्य प्रदेश में चम्बल नदी का अपवाह क्षेत्र अर्थात् भिण्ड, श्योपुर, मुरैना, ग्वालियर आदि क्षेत्र मृदा अपरदन से सर्वाधिक प्रभावित हैं।
इन क्षेत्रों में अवनालिका अपरदन (Gully erosion) के कारण खोह-खड्डों या उत्खात भूमि का निर्माण हुआ है।
मृदा अपरदन को रोकने के लिए प्रभावी उपाय
- अवनालिकाओं का भराव एवं ढलाव के सहारे वेदिकाओं का निर्माण करना।
- बीहड़ क्षेत्रों का समतलन और इन क्षेत्रों में मिट्टी को संगठित रखने वाले पौधों का रोपण करना।
- मृदा अपरदन से प्रभावित क्षेत्रों में वृक्षारोपण करना और अत्यधिक पशुचारण पर प्रतिबंध लगाना।
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