मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति एवं जनजातियां MCQ
(a) 1.15 करोड़
(b) 1.22 करोड़
(c) 1.13 करोड़
(d) 1.23 करोड़
व्याख्या: (c) वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, मध्य प्रदेश में अनुसूचित जातियों की कुल जनसंख्या 1.13 करोड़ है, जो राज्य की कुल जनसंख्या का 15.6 प्रतिशत है। अनुसूचित जातियों की कुल जनसंख्या में प्रदेश का देश में 8वां स्थान है तथा प्रतिशतता की दृष्टि से 17वां स्थान है। वर्ष 2001 की जनगणना को संदर्भ माना जाए तो वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2011 में अनुसूचित जाति की आबादी में राज्य में 0.4 फीसदी वृद्धि हुई है।
टिप्पणी: संविधान में अनुसूचित जाति का विस्तारपूर्वक विवरण अनुच्छेद- 341 में तथा परिभाषा अनुच्छेद-366 (खंड-24) में दी गई है। जबकि अनुसूचित जनजाति का विस्तारपूर्वक वर्णन अनुच्छेद- 342 एवं उसे अनुच्छेद- 366 (खंड-25) में परिभाषित किया गया है।
(a) झाबुआ
(b) उज्जैन
(c) शहडोल
(d) इंदौर
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश का सर्वाधिक अनुसूचित जाति वाला जिला इंदौर (SC जनसंख्या 545,239) तथा सबसे कम अनुसूचित जाति वाला जिला झाबुआ (SC जनसंख्या 17,827) है। सर्वाधिक SC प्रतिशतता वाला जिला उज्जैन (23.37 प्रतिशत) तथा सबसे कम प्रतिशतता वाला जिला झाबुआ (1.7 प्रतिशत) है।
(a) 42
(b) 44
(c) 46
(d) 48
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश शासन के वार्षिक प्रतिवेदन के अनुसार मध्य प्रदेश में कुल 48 अनुसूचित जातियां अधिसूचित की गई है, जिसमें चमार जाति प्रदेश की सबसे बड़ी अनुसूचित जाति है।
मध्य प्रदेश में चमार (44.98 लाख), बलाही (11.05 लाख), धानुक (7.80 लाख), महार (6.73 लाख), कोली (5.46 लाख) आदि प्रमुख अनुसूचित जातियां हैं।
टिप्पणी: मध्य प्रदेश की अधिसूचित कुल 48 अनुसूचित जातियां हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख जातियां निम्नलिखित हैं:
1. औधेलिया, 2. बागरी, बागदी, 3. बहना, बाहना, 4. बलाही, बलाई, 5. बनचड़ा, 6. बरहर, बसोड़, 7. बरगुंडा, 8. बसोर, बुरूद, बांसोर, बांसोड़ी, बांसफोर, बसार, 9. बेदिया, 10. बेलदार, सुनकर, 11. भंगी, मेहतर, बाल्मीक, लालबंगी, धारकर, 12. भानुमती, 13. चादर, 14. चर्मकार, चारी, बेरवा, भांबी, जाटव, मोची, रैगर, नाना, रोहीदास, रामनामी, सतनी, सूर्जयावंशी, सूर्जयारामनामी, अहिरवार, चर्मकार, मंगन, रैदास, 15. चिदार, 16. चिकवा, चिकवी, 17. चितार, 18. दहाइत दहायत दहात, 19. देवार, 20. धनुक, 21. धेड़, धेर, 22. धोबी (भोपाल, रायसेन और सीहोर जिलों में), 23. डोहोर, 24. डोम, डुमार, डोमे, डोमर, डोरिस, 25. गंडा, गंडी, 26. घासी, घसिया, 27. होलिया, 28. कंजर, 29. कटिया, पथरिया, 30. खटीक, 31. कोली, कोरी, 32. कोतवाल (भिंड, धार, देवास, गुना, ग्वालियर, इंदौर, झाबुआ, खरगोन, मंदसौर, मुरैना, रायगढ़, रतलाम, शाजापुर, शिवपुरी, उज्जैन और विदिशा जिलों में), 33. खांगर, कनेरा, मिर्धा, 34. कुचबंदिया, 35. कुम्हार (छतरपुर, दतिया, पन्ना, रीवा, सतना, शहडोल, सीधी और टीकमगढ़ जिलों में), 36. महार, मेहरा, मेहर, 37. मांग, मांग गारोडी, मांग गारुड़ी, दखनी मांग, मांग महासी, मदारी, गारुडी, राधे मांग, 38. मेधवाल, 39. मोधिया, 40. मुसखान, 41. नट, कालबेलिया, सपेरा, नवदिगार, कुबुतर, 42. पारधी (भिंड, धार, देवास, गुना, ग्वालियर, इंदौर, झाबुआ, खरगोन, मंदसौर, मुरैना, राजगढ़, रतलाम, शाजापुर, शिवपुरी, उज्जैन और विदिशा जिलों में), 43. पासी, 44. रुज्झर, 45. सांसी, सांसिया, 46. सिलावट, 47. जमराल, 48. सरगरा।
(a) 21 जुलाई, 2011
(b) 21 अगस्त, 2012
(c) 21 सितंबर, 2011
(d) 21 अक्टूबर, 2012
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए अनुसूचित जाति कल्याण विभाग का गठन 21 जुलाई, 2011 को किया गया।
प्रशासनिक व्यवस्था: अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति कल्याण विभाग कार्यरत है। इस विभाग के गठन की अधिसूचना 21 जुलाई, 2011 को हुई थी। इसके तहत सरकार एवं प्रशासनिक स्तर पर निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई हैं:
- राज्य स्तर: मंत्री स्तर पर अनुसूचित जाति कल्याण विभाग एक मंत्री के नियंत्रण और निर्देशन में कार्य करता है। उनकी सहायता के लिए सामान्यतः राज्यमंत्री भी होते हैं।
- मंत्रालय स्तर: मंत्रालय स्तर पर विभागीय नियंत्रण हेतु प्रमुख सचिव, अनुसूचित जाति कल्याण, उप सचिव, अवर सचिव, और अन्य सहायक अधिकारी पदस्थ हैं।
-
विभागाध्यक्ष एवं अधीनस्थ कार्यालय:
- आयुक्त, अनुसूचित जाति विकास: राज्य स्तर पर आयुक्त अनुसूचित जाति विकास के नेतृत्व में यह विभाग अनुसूचित जातियों के शैक्षणिक और आर्थिक उत्थान हेतु योजनाओं का संचालन करता है।
- नागरिक अधिकार संरक्षण प्रकोष्ठ: यह विभाग आयोग के रूप में मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति आयोग के अंतर्गत कार्य करता है। आयोग में विभागाध्यक्ष सचिव होते हैं।
- मध्य प्रदेश राज्य सहकारी अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम मर्यादित: यह निगम भी कार्यरत है, और इसके शीर्ष अधिकारी प्रबंध संचालक होते हैं।
(a) वर्ष 1959
(b) वर्ष 1969
(c) वर्ष 1979
(d) वर्ष 1989
व्याख्या: (c) अनुसूचित जाति के परिवारों को आर्थिक निर्भरता प्रदान करने के उद्देश्य से एवं अन्य व्यवसायों से संबंधित विभिन्न प्रकार के परिवारमूलक आर्थिक कार्यक्रमों द्वारा उनके जीवन स्तर को सुधारने हेतु मध्य प्रदेश राज्य सहकारी अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम का गठन वर्ष 1979 को हुआ था। इस निगम संचालित स्वरोजगार योजनांतर्गत अनुदान राशि मध्य प्रदेश शासन द्वारा अनुसूचित जाति विकास विभाग के माध्यम से निगम को प्रदान की जाती है। मध्य प्रदेश राज्य सहकारी अनुसूचित जाति वित्त एवं विकास निगम हितग्राहियों के कौशल विकास तथा आर्थिक विकास हेतु विभिन्न योजनाएं संचालित करता है, जिनमें मुख्यमंत्री उद्यमी योजना, मुख्यमंत्री कौशल उन्नयन प्रशिक्षण योजना, मुख्यमंत्री स्वरोजगार योजना, मुख्यमंत्री आर्थिक कल्याण योजना एवं सावित्री बाई फुले स्वसहायता समूह योजना प्रमुख है।
(a) वर्ष 1992
(b) वर्ष 1995
(c) वर्ष 1994
(d) वर्ष 1997
व्याख्या: (b) मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति आयोग का गठन वर्ष 1995 में किया गया था। आयोग में एक अध्यक्ष एवं दो अशासकीय सदस्य होते हैं। आयुक्त, अनुसूचित जाति विकास आयोग के पदेन सदस्य होते हैं।
टिप्पणी: आयोग के कार्य:
- अनुसूचित जाति के सदस्यों को संविधान के अधीन तथा तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि के अधीन दिए गए संरक्षण कि लिए हितप्रहरी आयोग के रूप में कार्य करना।
- हिंदी विशिष्ट जातियों, मूलवंशों या जनजातियों या ऐसी जातियों मूलवंशों या जनजातियों के भागों या उसमें के यूथों को संविधान (अनुसूचित जाति) आदेश, 1995 में सम्मिलित करने के लिए कदम उठाने के लिए राज्य सरकार को सिफारिश करना।
- अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए बने कार्यक्रमों के समुचित तथा यथासमय कार्यांवयन की निगरानी करना तथा राज्य सरकार अथवा किसी अन्य निकाय या प्राधिकरण के कार्यक्रमों के संबंध में जो ऐसे कार्यक्रमों के लिए जिम्मेदार है, सुधार हेतु सुझाव देना।
- लोक सेवाओं तथा शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश के लिए अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षण के संबंध में सलाह देना।
(a) 29 सितंबर, 2014
(b) 29 अक्टूबर, 2014
(c) 29 नवंबर, 2014
(d) 29 दिसंबर, 2014
व्याख्या: (b) भारतीय संविधान के अनुच्छेद-244 (1) के अंतर्गत, प्रदेश में अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन और नियंत्रण तथा अनुसूचित जातियों के हितों की रक्षा के लिए सुझाव देने हेतु मध्य प्रदेश शासन की अधिसूचना क्रमांक एफ23*4/2004/4/25 के द्वारा 29 अक्टूबर, 2014 को मध्य प्रदेश अनुसूचित जाति सलाहकार मंडल का गठन किया गया है। इसके अध्यक्ष मुख्यमंत्री व उपाध्यक्ष मंत्री अनुसूचित जाति कल्याण विभाग हैं। सलाहकार मंडल में अनुसूचित जाति के 18 विधायक तथा 4 वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों को सदस्य बनाया गया है। आयुक्त अनुसूचित जाति विकास सलाहकार मंडल के सदस्य सचिव हैं।
(a) 41
(b) 46
(c) 50
(d) 51
व्याख्या: (d) विमुक्त, घुमक्कड़ और अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियां घुमक्कड़ प्रवृत्ति के होने कारण एक स्थान से दूसरे स्थान जाकर घूमती रहती हैं। इस कारण इन जातियों के समक्ष आर्थिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन की समस्या बनी रहती है। विमुक्त एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों की सूची में राज्य सरकार के द्वारा 51 जातियों को सम्मिलित किया गया है। इसमें 21 विमुक्त जनजातियां एवं 30 घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियां शामिल हैं।
घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियां: 1. बलदिया, 2. बाछोवालिया, 3. भाट, 4. भंतु, 5. देसर, 6. दुर्गी मुरागी, 7. घिसाड़ी, 8. गोंधली, 9. इरानी, 10. जोगी, जोगी कनफटा, 11. जोशी बालसंतोषी, जोशी बहुलीकर, जोशी बजारिया, जोशी बुदुबुदुकी, जोशी चित्रावठी, जोशी हरदा, जोशी नादिरा, जोशी हरबोला, जोशी नामदीवाला, जोशी पिंगला, 12. काशीकापड़ी (काशीकापड़ी हरदा, काशीकापड़ी हरबोला), 13. कलंदर नागफड़ा, 14. कामद, 15. करोला, 16. कसाई (गडरिए), 17. लोहार, पिट्टा (गाड़िया लोहार), 18. नायकढ़ा (नायकड़ा भील), 19. शिकलिगर (बरघिया, सैगुलगोर, सरानिया, शिकलिगर), 20. सिरंगी वाला, कुचबंद (कुचबंद), 21. सुदुगुदु, सिद्धन (बहरूपिया), 22. बनीयन्थर, राजगोंड, 23. गद्दीज, 24. रेभारी (पशुपालक), 25. गोलर (गोलम, गोला, बालाघाट, गोलकर), 26. गोसांई, 27. भराडी हरदास, 28. भराडी हरबोला, 29. हेजरा, 30. धनगर।
विमुक्त जातियां: 1. कंजर, 2. सांसी, 3. बंजारा, 4. बनछड़ा, 5. मोघिया, 6. कालबेलिया, 7. भानमत, 8. बगरी, 9. नट, 10. पारधी, 11. बेदिया, 12. हाबुड़ा, 13. भाटू, 14. कुचबंदिया, 15. बिजोरिया, 16. कबूतरी, 17. सन्धिया, 18. पासी, 19. चंद्रवेदिया, 20. बैरागी, 21. सनोरिया।
(a) 22 जून, 2011
(b) 22 जुलाई, 2011
(c) 22 अगस्त, 2011
(d) 22 सितंबर, 2011
व्याख्या: (a) विमुक्त, घुमक्कड़ और अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों के कल्याण के लिए मध्य प्रदेश शासन द्वारा विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति कल्याण विभाग का पृथक रूप से गठन 22 जून, 2011 को किया गया।
(a) वर्ष 1992
(b) वर्ष 1994
(c) वर्ष 1996
(d) वर्ष 1998
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश राज्य विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जाति अभिकरण का गठन वर्ष 1996 में किया गया है एवं इसके विनियम वर्ष 1995 के नाम से पंजीबद्ध कराए गए हैं। अभिकरण में 1 अध्यक्ष, 4 शासकीय एवं 5 अशासकीय सदस्य होते हैं। नवगठित विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति विकास, संचालनालय के गठन उपरांत अभिकरण को संचालनालय के अधीन किए जाने की अधिसूचना 12 सितंबर, 2013 को जारी की गई। अधिसूचना जारी होने के उपरांत संचालक, विमुक्त, घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजाति विकास अभिकरण के पदेन सदस्य सचिव हैं।
टिप्पणी- अभिकरण के कार्य:- विमुक्त घुमक्कड़ एवं अर्द्धघुमक्कड़ जनजातियों के विकास एवं उनकी समस्याओं का पता लगाना।
- विकास के विभिन्न क्षेत्रों में विनियोजना तथा उत्पादन के लिए जातियों के परामर्श से आयोजनाएं तैयार करना, ताकि उनकी आर्थिक तथा सामाजिक उन्नति हो सके।
- इन आयोजनाओं को या तो प्रत्यक्ष रूप से या समुचित अभिकरणों के माध्यम से निष्पादित करना।
(a) 1,53,16,784
(b) 1,53,15,731
(c) 1,53,24,532
(d) 1,53,44,845
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश भारत का सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाला राज्य है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, प्रदेश की जनजातीय जनसंख्या 1,53,16,784 है। यह प्रदेश की कुल जनसंख्या का 21.09 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या की दृष्टि से मध्य प्रदेश का भारत देश में प्रथम तथा प्रतिशतता की दृष्टि से 13वां स्थान है।
(a) 43
(b) 47
(c) 50
(d) 51
व्याख्या: (a) भारत के राष्ट्रपति के द्वारा मध्य प्रदेश के लिए जारी अनुसूचित जनजातियों की सूची संशोधन (1976) में इन्हें 46 समुदाय के अंतर्गत सूचीबद्ध किया गया था। भारत सरकार की अधिसूचना दिनांक 8 जनवरी, 2003 द्वारा मध्य प्रदेश की अनुसूचित जनजातियों की सूची में अंकित क्रमश: कीर, मीना एवं पारधी जनजातियों को सूची से विलोपित किया गया है। इस प्रकार मध्य प्रदेश में कुल 43 अनुसूचित जनजाति समूह अधिसूचित हैं।
(a) झाबुआ
(b) अलीराजपुर
(c) धार
(d) भिंड
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में अधिकतम जनजातीय जनसंख्या वाला जिला धार (12,22,814) है तथा न्यूनतम जनजातीय जनसंख्या वाला जिला भिंड (6,131) है। परंतु कुल जनसंख्या में जनजातीय जनसंख्या के प्रतिशत की दृष्टि से शीर्ष जिला अलीराजपुर (89.0 प्रतिशत) तथा अंतिम जिला भिंड (0.4 प्रतिशत) है।
टिप्पणी: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, मध्य प्रदेश में मात्र 10.40 लाख आदिवासी ही नगरों में निवास करते हैं, जो कुल जनजातीय जनसंख्या का मात्र 6.8 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों आदिवासियों के निवास की दृष्टि से भिंड जिले का प्रथम स्थान है, जहां 76.8 प्रतिशत जनजातीय जनसंख्या शहरों में निवास करती है जबकि डिंडोरी जिला अंतिम स्थान पर है, जहां मात्र 1.6 प्रतिशत जनजातीय जनसंख्या शहरों में निवास करती है।(a) 3
(b) 4
(c) 5
(d) 6
व्याख्या: (a) भारत सरकार द्वारा मध्य प्रदेश की तीन जनजातियों (बैगा, भारिया और सहरिया) को विशेष पिछड़ी जनजाति के रूप में अधिसूचित किया गया है। मध्य प्रदेश में विशेष पिछड़ी जनजातियों की कुल जनसंख्या 5.51 लाख है। यह प्रदेश में कुल जनजातीय आबादी का 4.51 प्रतिशत के लगभग है।
(a) 8
(b) 10
(c) 11
(d) 13
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में विशेष पिछड़ी जनजाति समूह के विकास हेतु योजनाएं बनाने व क्रियांवयन करने हेतु 11 अभिकरण कार्यरत है, जो 15 जिलों में विस्तारित है।
(a) 8 अगस्त, 2014
(b) 8 सितंबर, 2014
(c) 8 अक्टूबर 2014
(d) 8 नवंबर, 2014
व्याख्या: (b) वर्ष 1957 में संविधान के अनुच्छेद-244 (1) के अंतर्गत प्रदेश के अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन व नियंत्रण तथा अनुसूचित जनजातियों के हित संरक्षण के लिए सुझाव देने हेतु मध्य प्रदेश आदिम जाति मंत्रणा परिषद का गठन किया गया था, जिसका 8 सितंबर, 2014 को पुनर्गठन कर दिया गया।
(a) 29 सितंबर, 1991
(b) 29 सितंबर, 1992
(c) 29 सितंबर, 1993
(d) 29 सितंबर, 1994
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश आदिवासी वित्त एवं विकास निगम की स्थापना कंपनी अधिनियम, 1956 की धारा 25 के अंतर्गत 29 सितंबर, 1994 को की गई। इसका उद्देश्य जनजातीय समाज का आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक विकास करना, शोषण समाप्त करना तथा उन्हें गरीबी रेखा से ऊपर उठाना है।
(a) 6 जून, 2011
(b) 6 जुलाई, 2012
(c) 6 अगस्त, 2011
(d) 6 सितंबर, 2012
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में राज्य स्तरीय कोल जनजाति विकास अभिकरण का गठन 6 जून, 2011 में किया गया है, जिसका उद्देश्य कोल जनजाति के विकास के लिए पृथक आर्थिक, शैक्षणिक एवं सामाजिक विकास करना है।
(a) वर्ष 1971
(b) वर्ष 1975
(c) वर्ष 1981
(d) वर्ष 1985
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश रोजगार एवं प्रशिक्षण परिषद (Madhya Pradesh Council of Employment and Training- MAPCET) स्थापना वर्ष 1981 में की गई थी, जिसका उद्देश्य जनजातीय वर्ग के शिक्षित बेरोजगार युवाओं के लिए विभिन्न तकनीकी एवं व्यावसायिक क्षेत्रों में कुशलता का विकास कर उनके रोजगार एवं स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि करना है।
(a) वर्ष 1970
(b) वर्ष 1980
(c) वर्ष 1990
(d) वर्ष 1996
व्याख्या: (b) मध्य प्रदेश में अनुसूचित जनजाति, आदिम जाति, अनुसूचित जाति एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के संयुक्त उपक्रम के रूप में वन्या प्रकाशन की स्थापना वर्ष 1980 में हुई थी, जिसका उद्देश्य प्रदेश की आदिवासी संस्कृति से संबंधित श्रेष्ठ साहित्य को आदिवासी समाज तक पहुंचाना है।
(a) भिल्ल
(b) बील
(c) विबाल
(d) इनमें से कोई नहीं
व्याख्या: (a) भील शब्द संस्कृत भाषा के भिल्ल शब्द से निर्मित है तथा भील नाम द्रविड़ भाषा परिवार के अंतर्गत कन्नड़ के 'बील' शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है धनुष। यह सच है कि आदिम विश्वासों में जीने वाली इस सरल स्वभाव की जाति के लोग अपने धनुष कौशल में कोई सानी नहीं रखते, इसीलिए इनका नामकरण भी इनके गुण के आधार पर हुआ। रसेल और हीरालाल के अनुसार 600 ई. से ही यह शब्द प्रयोग में आया, जिसके पूर्व यह जनजाति संभवतः पुलिन्द तथा वन पुत्रादि नामों से विख्यात थी। कुछ विद्व नों का यह मत है कि यह शब्द संस्कृत भाषा के भिल्ल शब्द का तद्भव रूप है, जिसका तात्पर्य भेदने की प्रक्रिया से है।
(a) महाराष्ट्र
(b) मध्य प्रदेश
(c) छत्तीसगढ़
(d) राजस्थान
व्याख्या: (d) मूल निवास के संबंध में किवदंती के अनुसार सबसे पहले भील दामोर लोग थे। दामोरों के साथ एक दूसरा वर्ग भी रहता था, जो बरकिरिया लोगो का था। एक बार दोनों में किसी कारण से युद्ध छिड़ गया, जिसमें दामोर लोग पराजित हुए और उन्होंने अपना मूल स्थान छोड़ दिया। वे राजस्थान के कुशलगढ़ क्षेत्र के ढोल नामक स्थान में आ बसे। तब से भील इस ढोलका स्थान को ही अपना मूल स्थान मानने लगे।
टिप्पणी: वर्तमान में भारत में भीलों का वास मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात व महाराष्ट्र राज्यों में प्रमुख रूप से हैं। मध्य प्रदेश के पर्वतीय वनखंडों में भीलों का विस्तार अधिक है। यहां ये लोग झाबुआ, पश्चिम निमाड़, धार और रतलाम जिलों में प्रमुख रूप से बसे हुए हैं। इस क्षेत्र में भीलों के अलावा भिलाला, पटलिया और राठ भील निवास करते हैं। मध्य प्रदेश में भील प्रमुख रूप से झाबुआ, थांदला, पेटलावद, अलीराजपुर, जोबट, नारकुंडी, बाग, छोटा उदयपुर, धार, बड़वानी, खरगोन, तलोद, शाहदा, सिरपुर, अमझेरा एवं रतलाम प्रक्षेत्र में निवास करते हैं। गुजरात, राजस्थान के सिरोही, उदयपुर, कोटरा, सरसों, दांता विलरिया, ईंडर, दुसारिया, बावलिया, चंदोर, कलवन, खैरवाड़ा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, मालपुर, बलसिमोर, कुरनो सूंथ, लूणावाड़ा, झालोद आदि क्षेत्र में प्रमुख रूप से बसे हुए है। महाराष्ट्र के नंदुरवार, नांदेड़, नासिक, पोंन, खरगना आदि ग्रामीण क्षेत्रों में बसे हैं।
(a) भील
(b) बंजारा
(c) गोंड
(d) सहरिया
व्याख्या: (a) भील स्त्रियां और पुरुष शरीर के विभिन्न अंगों में कथीर, चांदी और कांसे धातु से निर्मित गहने पहनते हैं। बहुधा कथीर का प्रचलन भील जनजाति में सर्वाधिक है। भील निर्धनता के कारण बहुत ही कम वस्त्र धारण करते हैं। निर्धन भील एक लंगोटी (कोस्टी) में ही अपने वस्त्रों की पूर्ति कर लेता है। संपन्न भील सिर पर लाल, हरे, नीले रंग के (लगभग 20 हाथ लम्बे) साफे, रंग-बिरंगी कमीज व धोती पहनते हैं। स्त्रियां चोली, कांचली घाघरा (लगभग बीस हाथ घेरे का) और लुगड़ा, ओढ़नी (छह हाथ लम्बी और चार हाथ चौड़ी पहनती हैं।
टिप्पणी: भीलों का शरीर सुगठित होता है। भील देखने में सुन्दर तथा ताम्रवर्णी होते है, परंतु जंगलों में रहने के कारण इनका रंग काला होता है। आंखे भूरी और काली होती हैं। चेहरा गोल और नाक-नक्शा सुडौल होते हैं। दांत सुंदर और मजबूत होते हैं। भील इन विशेषताओं के कारण आदिम समूह में अपनी अलग पहचान रखते हैं।
(a) कनगी
(b) मुहालदा
(c) चारली
(d) ओड़ई
व्याख्या: (a) भीलों का रहन-सहन बहुत ही साधारण है। दैनिक पहनने के वस्त्रों के अलावा इनके घर में दुल्यो या खाटली. बिछाने के लिए गोदड़ी एवं ओढ़ने के लिए कम्बल होता है। अनाज रखने के लिए बांस से बनी हुई कोठी होती है, जिसे कनगी कहते हैं। अनाज पीसने के लिए घट्टी, झाड़ने के लिए सूपा, उड़ाने के लिए टोपली (चारली), बाजार से सामान लाने के लिए बांस से बनी हुई कलात्मक ओड़ई होती है, जो टोपलीनुमा ढक्कनदार बांस की बारीक चिपों से बनती है। रोटी बनाने के लिए तवा (खपरा). सब्जी बनाने के लिए मिट्टी का तबला, रोटी रखने के लिए बांस का मस्का रहता है। पानी के लिए मटका (गोलो), बटलोई, गुंडी (पीतल की) होती. है। पानी पीने के लिए पीतल या एल्युमीनियम का कलस्या (गिलास) रहता है। लौकी की ओलखी भी रहती है, जिससे पानी पीते हैं। भोजन पीतल या कांसे की थाली में करते हैं। पानी के बर्तन लकड़ी के माच पर रखते हैं, जिसे मुहालदा कहते हैं।
(a) वागुर
(b) गोफन
(c) धनली
(d) फंदा
व्याख्या: (c) भील सदैव अपने साथ धनुष बाण रखते हैं। धनुष बाण भीलों की प्रमुख पहचान है। अंधेरे में भी तीर का निशाना लगाने में कुशल होते है। जंगलों में हिंसक पशुओं से बचने के लिए धनुष बाण भीलों की आत्मरक्षा का सबसे बड़ा शस्त्र है।
टिप्पणी: भील धनुष को धनली या कामठी कहते हैं। यह मजबूत व लचीलेदार बांस की चीप का बनता है। प्रत्यंचा भी बांस की एक पतली चीप से बनती है, जिसे पिन्छा कहते हैं। प्रत्यंचा को धनली से बांधने के लिए बैल की तांत (चाम) या रस्सी का उपयोग करते हैं। बाण को बिल्खी कहते हैं। बाण की लकड़ी पतले बांस की लकड़ी अथवा वरं या खड़ी से बनती है, जिसे सर कहते हैं। सर के अगले हिस्से पर लोहे की नुकीली फाल लगी रहती है, जिसे बिल्खी कहते हैं। बिल्खी का पतला सिरा सर के अंदर कर लाख से चिपका देते हैं। उसके ऊपर रेशम कीड़े के घर या खोल से सुतली बनाकर बिल्खी को मजबूत करने के लिए बांध देते हैं। बाण के पिछले हिस्से पर तीन समानांतर रेखाओं में चील के पंख गेंद की सहायता से चिपकाकर कोसे की सुतली से बांधते हैं। पिछले हिस्से में दो पतली चीपें निकली होती हैं, जिसे पेखारा कहते हैं। जो प्रत्यंचा में फंसाने के काम आती है। भील एकलव्य की गुरु भक्ति से प्रभावित है। एकलव्य भील जाति का कुशल धनुर्धर था। गुरू के ठुकराने पर उसने स्वअभ्यास से धनुर्विद्या सीखी और उसमें अर्जुन से भी अधिक कुशलता प्राप्त की थी। यह बात द्रोणाचार्य को ठीक नहीं लगी और उन्होनें गुरू दक्षिणा में एकलव्य से दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया। एकलव्य ने गुरु की आज्ञा का पालन करते हुए अपना अंगूठा काटकर गुरू के चरणों में समर्पित कर दिया, तब से अपने पूर्वज एकलव्य की स्मृति में भील धनुष की प्रत्यंचा पर अंगूठा नहीं लगाते। अंगूठे को मोड़कर प्रत्यंचा खींचते हैं। बाण जैसा एक बिटलो होता है, जिसके अग्र भाग पर बिल्खी जैसी फाल की जगह एक गोल मुंह वाली लोहे की बीट लगी रहती है। बिटलो का उपयोग पक्षियों को मारने के लिए होता है।
विशेष: फालिया या धारिया भी लोहे का बड़ा धारदार दरातीनुमा हथियार है। भील पगड़ी पर गोफन बांधते हैं। गोफन चमड़े या रस्सी की गुंथी हुई एक चौड़ी पट्टी होती है, उसके दोनों सिरों पर रस्सी रहती है। पट्टी पर पत्थर रखकर रस्सी के दोनों सिरों को घुमाते हुए एक रस्सी छोड़ देते हैं, जिससे पत्थर बहुत तेजी से निशाने पर लगता है।
महत्वपूर्ण तथ्य: इनके अलावा कुल्हाड़ी, तलवार, लट्ठ, फरसा भी भीलों के हथियार है। आजकल भीलों के पास बंदूकें भी देखने को मिल जाती हैं। खरगोश आदि पकड़ने के लिए एक गुंथी हुई रस्सी बनाते हैं, जिसे वागुर कहते हैं। जाल मछली पकड़ने का फन्दा है, यह गोल आकार का रहता है। इसमें चारों ओर लोहे के वजनदार, गुरिये लगे रहते हैं। डहवाल्या भी मछली पकड़ने का जाल है। एक अर्द्धचंद्राकर बांस में सूत का बारीक जाल बांध देते हैं। बांस के दोनों सिरों पर रस्सी बांधते हैं। मुयड्या भी मछली पकड़ने के लिए बांस की लम्बी-लम्बी पतली सींको से बनाया जाता है। इसका ऊपरी सिरा चौड़ा व निचला सिरा संकरा होता है। मछली प्रवेश के साथ ही सीकेँ अपने आप सिकुड़ जाती हैं।
(a) कू
(b) हू
(c) सू
(d) कोई नहीं
व्याख्या: (a) भील पहाड़ी टेकरियों पर झोपड़ियां बनाना पसंद करते हैं। अपने-अपने खेत में अपनी-अपनी झोपड़ी बनाते हैं। जहां पर चार-पांच झोपड़ियां नजदीक ही बनी हों तो उन्हें फल्या कहते हैं तथा घरों (मकानों) को कू कहते हैं। फल्या में विशिष्ट व्यक्ति के रहने पर नामकरण भी उसी नाम पर होता है। जैसे जिस फल्या में पटेल रहता है उसका नाम पटेल फल्या रहता है। इसी प्रकार तड़वी फल्या, बड़वा फल्या कहलाते हैं। कई फल्या मिलकर गांव बनता है, जिसे पाल कहते हैं।
टिप्पणी: भीलों का गृह निर्माण और उनकी वास्तु विधि अत्यंत साधारण होती है। बल्लियां गाड़कर उस पर आड़ा (उरयाल) रखते हैं। फिर डंडे रखकर आड़ी- आड़ी लकड़ियां काम्बड़ी रखते हैं। काम्बड़ी के ऊपर नल्या (खपरैल) बिछाते है। घर की दीवारें बांस और मिट्टी की बनी होती हैं, जिसे कुड़ कहते हैं। झोपड़ी के बीच का हिस्सा लगभग दस फीट ऊंचा और दीवारों तक यह ऊंचाई पांच-छ: फीट रह जाती है। चोरी के भय से घर में खिड़कियां भी नहीं रखी जाती किंतु दरवाजे अपवाद स्वरूप ही किसी के मकान में हो। घर के आस-पास कांटेदार बागड़ लगाते हैं, प्रवेश के लिए फाटक लगाते हैं। मकानों में दो या तीन कमरे और बरामदा होता है। बरामदे में गाय, भैंस, बकरियां बांधते हैं। आंगन में घास रखने का स्थान बनाया जाता है। आपसी कलह और किसी भी प्रकार के विवाद से बचने के लिए भील अलग-अलग झोपड़े बनाते हैं। बहुधा झोपड़ियों का मुंह पूर्व दिशा की ओर होता है।
(a) 2
(b) 3
(c) 4
(d) 5
व्याख्या: (c) भील जनजाति चार वर्गों क्रमश: भील, भिलाला, पटलिया और रांठ में पायी जाती है तथा धानुका व नायकड़ा इसके उपवर्ग है। प्रत्येक वर्ग में अनेक उपजातियां पायी जाती हैं। श्री बसंत निर्गुण के सर्वेक्षण के आधार पर भील जनजाति के 71 गोत्र प्रकाश में आये हैं।
(a) पेज और भाजी
(b) ताड़ी और राबड़ी
(c) शरबत और तरकारी
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं
व्याख्या: (b) भील मकई, ज्वार, बाजरा, गेहूं, चना, कोद्रया आदि उपयोग में लाते हैं। राबड़ी भीलों का मुख्य भोजन है। राबड़ी मकई (मक्के) की धूली की होती है, जिसमें छाछ मिलाकर बड़े स्वाद से खाते हैं। पर्व त्योहारों पर चावल, गुड़-घी मिलाकर गुड़भात्या खाते-खिलाते हैं। शाक-सब्जियों में कुलथ्या, चवली, रजा, ग्वारफली, बल्लर (वाल), भटा ( इगना) इत्यादि मौसमी सब्जियों का उपयोग करते हैं। अनाज के अतिरिक्त इन्हें अन्य आहारों की भी आवश्यकता पड़ती है। तदर्थं उन्हें जंगल के कंदमूल, नदी-तालाबों से पकड़ी मछलियां, घर में पाली हुई मुर्गी, बकरा तथा वन्य शिकार खरगोश, तीतर, केकड़ा, हिरण आदि पर निर्भर रहना पड़ता है। मद्यपान भीलों की सामाजिक एवं धार्मिक आवश्यकता है। दैनिक जीवन में वैसे तो महुआ (मोहड़ा) की शराब इनका प्रिय पेय है किंतु ताड़ी भीलों का मौसमी और सर्वप्रिय पेय है। ताड़ी ताड़ वृक्ष से उतारी जाती है। मुख्यतः अलीराजपुर अंचल में ताड़ी के वृक्ष बहुतायत से है। शाम के वक्त ऊंचे ताड़ वृक्ष पर चढ़कर हंडी बांध दी जाती है। और सुबह उतार ली जाती है। सर्दियों के प्रारंभ होते ही ताड़ वृक्ष में ताड़ी बनना प्रारंभ हो जाती है।
(a) सोयेन
(b) डिठीना
(c) सांता
(d) डोंगर ढलवाई
व्याख्या: (d) भील नवागत शिशु के आगमन को शुभ मानते है। पुत्र को भील कुलदीपक मानते हैं। भीलों के यहां शिशु जन्म पर प्रसव का कार्य बहुधा परिवार के पुरुष व वरिष्ठ महिलाएं करती हैं। कहीं-कहीं यह कार्य सोयेन या सुवारनी करती है। अपनी परंपरा के अनुसार भील प्रसूता के सिरहाने तीर रखते हैं। भीलों में यह विश्वास है कि तीर जच्चा-बच्चा की भूत-प्रेत संबंधी बाधाओं से रक्षा करता है। शिशु जन्म के अंतिम समय तक महिलाएं प्रसूता के पास अग्नि जलाकर बैठी रहती हैं। बच्चा जन्म लेते ही महिलाएं तीर के अग्रभाग बिल्खी से नाड़ी काटती हैं। कहीं-कहीं शिशु जन्म होते ही ढोल बजाया जाता है। ग्रामवासियों को यह समझते देर नहीं लगती कि किसी परिवार शिशु जन्म हुआ है। प्रसूति के समय महिला को मदिरा पिलाई जाती है ताकि उसे कष्ट का अनुभव न हो। मछलियों का उबला पानी प्रसव के बाद पिलाया जाता है। यह शक्तिवर्द्धक पेय है।
टिप्पणी: शिशु जन्म के सातवें दिन घर की लिपाई पुताई के साथ ही प्रसूता को हल्दी लगाकर स्नान कराया जाता है इसे सांता कहते हैं। प्रसूता तीन बार शिश झुकाकर सूर्य देवता को नमन करती है, जिसे सूर्य पूजा कहते हैं। सूर्य पूजा में सगे-संबंधी भी सम्मिलित होते हैं। पूजन के बाद गृह की दहलीज पर पाट (चौक) बनाया जाता है। पाट के बीचों-बीच मकई का ढेर लगाया जाता है। पुत्र के लिए एक और पुत्री के लिए दो नारियलयुक्त कलश रखकर पूजन करते हैं। नवागत शिशु का सिर उत्तर और दक्षिण की ओर करके मकई के ढेर पर लिटाया जाता है, इसे पाहा ढरणा या डोंगर ढलवाई कहते हैं। अनाज ढह जाने पर भीलों की धारणा है कि शिशु बहुत वीर व साहसी है। सयानी महिलाएं बच्चे को नजर लगने से बचाने के लिए आंख, कपाल और गाल पर काजल का डिठौना लगाती हैं और साथ ही पैरों में काला धागा बांधती हैं।
विशेष: कहीं-कहीं सूर्य पूजन शिशु जन्म के बाद पहली दीवाली के दिन होता है। शिशु को मक्का के ढेर पर लिटाकर बच्चे की बुआ सूर्य पूजन करती है। बालक की मां पास में गड़े हुए बांस पर अपना लहंगा टांगकर उसके ऊपर एक लोटा उल्टा लटका देती है। इस रस्म में अन्नदेव, करतीमाता, जलदेव तथा वनदेव की प्रतीक रूप में पूजा की जाती है। बुआ को शिशु का पिता भेंट स्वरूप कपड़े व गहने देता है। प्रथम शिशु जन्म पर मुखिया सामूहिक भोज देता है। सूर्य पूजा के दिन ही स्थानी स्थानी की सलाह पर बच्चे का नामकरण होता है। तिथि, वार, महीनों आदि के नाम पर शिशु का नाम रखा जाता है। यह बच्चा बारह वर्ष का होता है, तब उसके दाहिने (जेवड्या) हाथ की भुजा और कलाई पर तपता हुआ तीर दागा जाता है। कहीं-कहीं जलते हुए कपड़े के टुकड़े रखकर जलाया जाता है। डाम देने की इस प्रथा के पीछे अनेक लोक विश्वास हैं। जैसे- डाम देने से शारीरिक व्याधियां पास नहीं आती है और धनुष चलाने में दक्षता प्राप्त होती है।
(a) धरणा विवाह
(b) नातरा विवाह
(c) गापा विवाह
(d) सांगवा विवाह
व्याख्या: (b) भीलों में विधवा का प्रचलन है। इसमें फेरे नहीं पड़ते है, केवल विवाह के कपड़े पहनाकर उसे घर में ले आते हैं। इसे नातरा या पुनर्विवाह कहते हैं। इसके अतिरिक्त भीलों में सामाजिक मान्यतानुसार दो-तीन पत्नी रखने की प्रथा है। यदि किसी विवाहित पुरुष को कोई युवती (अविवाहित) पसंद आ जाए तो वह आपसी सहमति से अपने यहां ले आते हैं और उससे पत्नी जैसा व्यवहार करता है तथा बाद में लड़की के पिता को झगड़ा देता है। नातरा विवाह में यदि विवाहित पुरुष चाहे तो विधिवत विवाह रचाता है, अन्यथा फेरे लेना आवश्यक नहीं है।
(a) धरणा विवाह
(b) नातरा विवाह
(c) काकड़ खूंटा विवाह
(d) आई भरायणा
व्याख्या: (d) भील जनजाति में कन्या पक्ष के माता-पिता यदि आर्थिक रूप से सक्षम न हो तो आई भरायणा विवाह प्रथा का प्रचलन है। जब लड़की के वयस्क होने पर माता-पिता आर्थिक परिस्थितियों के कारण कहीं संबंध तय नहीं कर पाते अथवा जिस लड़की का संबंध कहीं भी न हो पाता हो, ऐसी स्थिति में लड़की किसी अच्छे घर के लड़के को देखकर उसके यहां चली जाती है। लड़की का पिता अपने साथियों को लेकर दहेज के रूपए मांगने लड़के वालों के यहां जाता है। दहेज की राशि मिलने पर आई भरायणे वाले अपने घर ही ब्याह रचाते हैं। यदि लड़के वाले दहेज की राशि नहीं दे पाते हैं, तो लड़की को उसका पिता घर ले आता है और लड़के वालों से दंड वसूला जाता है।
(a) ओगी
(b) झोल्या चोली
(c) विदा
(d) बेड़ा भरना
व्याख्या: (a) भील जनजाति के विवाह में वर-वधू के फेरे के पश्चात कन्या दान होता है, जिसमें गांव के लोग और सगे-संबंधी वधू को रूपए-पैसे व जेवर आदि देते हैं। इसे भील ओगी कहते हैं। उसके पश्चात वर-वधू को घर के अंदर ले जाकर सिवैया (गेहूं के आटे से निर्मित) खिलाते हैं तथा बाहर आने के पश्चात छोड़कर वर-वधू के हाथों में चावल देकर दोनो पक्षों के लोग उन्हें कंधे पर बिठाकर नाचते हैं। नाचते-नाचते वर-वधू एक दूसरे पर चावल फेंकते हैं, जिसे चोखा खेलना कहा जाता है। इसके पश्चात वर-वधू के द्वारा थोड़े चावल मकान की छत पर फेंकना (अक्षत) शुभ माना जाता है।
टिप्पणी: भील जनजाति में विवाह के समय दूल्हे का भाई और साथी वधू के कपड़े लेकर वधू के घर में आते हैं। झोल्या चोली अर्थात एक सफेद रंग का लुगड़ा, जिसके किनारे हल्दी से रंगे हुए होते हैं और लाल रंग की चोली होती है। इन दोनों कपड़ो के साथ सवा रूपए, एक नारियल वाटिका में गुड़ वधू को दिया जाता है तथा स्त्रियां दूल्हे के भाई को हल्दी लगाती हैं।
(a) धरणा विवाह
(b) नातरा विवाह
(c) गापा विवाह
(d) सांगवा विवाह
व्याख्या: (b) भीलों में विधवा का प्रचलन है। इसमें फेरे नहीं पड़ते है, केवल विवाह के कपड़े पहनाकर उसे घर में ले आते हैं। इसे नातरा या पुनर्विवाह कहते हैं। इसके अतिरिक्त भीलों में सामाजिक मान्यतानुसार दो-तीन पत्नी रखने की प्रथा है। यदि किसी विवाहित पुरुष को कोई युवती (अविवाहित) पसंद आ जाए तो वह आपसी सहमति से अपने यहां ले आते हैं और उससे पत्नी जैसा व्यवहार करता है तथा बाद में लड़की के पिता को झगड़ा देता है। नातरा विवाह में यदि विवाहित पुरुष चाहे तो विधिवत विवाह रचाता है, अन्यथा फेरे लेना आवश्यक नहीं है।
(a) धरणा विवाह
(b) नातरा विवाह
(c) काकड़ खूंटा विवाह
(d) आई भरायणा
व्याख्या: (d) भील जनजाति में कन्या पक्ष के माता-पिता यदि आर्थिक रूप से सक्षम न हो तो आई भरायणा विवाह प्रथा का प्रचलन है। जब लड़की के वयस्क होने पर माता-पिता आर्थिक परिस्थितियों के कारण कहीं संबंध तय नहीं कर पाते अथवा जिस लड़की का संबंध कहीं भी न हो पाता हो, ऐसी स्थिति में लड़की किसी अच्छे घर के लड़के को देखकर उसके यहां चली जाती है। लड़की का पिता अपने साथियों को लेकर दहेज के रूपए मांगने लड़के वालों के यहां जाता है। दहेज की राशि मिलने पर आई भरायणे वाले अपने घर ही ब्याह रचाते हैं। यदि लड़के वाले दहेज की राशि नहीं दे पाते हैं, तो लड़की को उसका पिता घर ले आता है और लड़के वालों से दंड वसूला जाता है।
(a) ओगी
(b) झोल्या चोली
(c) विदा
(d) बेड़ा भरना
व्याख्या: (a) भील जनजाति के विवाह में वर-वधू के फेरे के पश्चात कन्या दान होता है, जिसमें गांव के लोग और सगे-संबंधी वधू को रूपए-पैसे व जेवर आदि देते हैं। इसे भील ओगी कहते हैं। उसके पश्चात वर-वधू को घर के अंदर ले जाकर सिवैया (गेहूं के आटे से निर्मित) खिलाते हैं तथा बाहर आने के पश्चात छोड़कर वर-वधू के हाथों में चावल देकर दोनो पक्षों के लोग उन्हें कंधे पर बिठाकर नाचते हैं। नाचते-नाचते वर-वधू एक दूसरे पर चावल फेंकते हैं, जिसे चोखा खेलना कहा जाता है। इसके पश्चात वर-वधू के द्वारा थोड़े चावल मकान की छत पर फेंकना (अक्षत) शुभ माना जाता है।
टिप्पणी: भील जनजाति में विवाह के समय दूल्हे का भाई और साथी वधू के कपड़े लेकर वधू के घर में आते हैं। झोल्या चोली अर्थात एक सफेद रंग का लुगड़ा, जिसके किनारे हल्दी से रंगे हुए होते हैं और लाल रंग की चोली होती है। इन दोनों कपड़ो के साथ सवा रूपए, एक नारियल वाटिका में गुड़ वधू को दिया जाता है तथा स्त्रियां दूल्हे के भाई को हल्दी लगाती हैं।
(a) जोड़ेदार अभियान
(b) दहेज निषेध अभियान
(c) साथीदार अभियान
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश के भीलंचल प्रदेश झाबुआ जिले में भील एवं भिलाला जनजातियों में दापा-प्रथा (दहेज की प्रथा) का प्रचलन है। इस प्रथा में वर पक्ष की ओर से वधू पक्ष को दहेज दिया जाता है। अक्टूबर, 2016 से इस प्रथा को समाप्त करने हेतु साथीदार अभियान प्रारंभ किया गया है।
(a) विरहा
(b) टिंया
(c) उपला
(d) करेहा
व्याख्या: (a) भील जनजाति में मृतक के शव को आगे की ओर पैर कर मढ़ा पर लिटाकर सफेद कपड़े (कफन) से ढक देते हैं। कपड़े पर गुलाल छिड़कते हैं। सुहागन या विधवा के मरने पर लाल कपड़ा (कफन) ढका जाता है। कुंवारे व्यक्ति के मरने पर कफन पर हल्दी व मेहंदी छिड़कते हैं। मृतक के सिरहाने नीचे की ओर एक नाड़े में नारियल बांधकर लटका देते हैं। मृतक का पुत्र या नजदीकी रिश्तेदार हाथ में जला हुआ कंडा (उपला) तथा एक थाली मक्के की रोटी (केवल एक पुड़ सिका हुआ) और मक्के की रोटी से बना एक लड्डू एवं थोड़ा सा गुड़ रखकर मृतक के शरीर के आगे-आगे चलता है। मृतक के साथ परिवार की स्त्रियां भी एक निश्चित स्थान तक जाती हैं, जिसे विरहा कहते हैं। विरहा मात्र एक पत्थरों का ढेर रहता है। वहां जाकर स्त्रियां मृतक के नाम की मटकी फोड़ती हैं। इस स्थान पर शव को विश्राम दिया जाता है। स्त्रियां रूदन करती हुई घर वापस आ जाती हैं। विरहा में मृतक को विश्राम देने के बाद मृतक का सिर आगे और पीछे करके श्मशान भूमि जाते हैं।
टिप्पणी: भील जनजाति में मृत्यु संस्कार के दौरान मृत शरीर को सुविधा अनुसार जलाने, गाड़ने और जलदाग करने की प्रथा प्रचलित है, जिनके कोई संबंधी नहीं होता है या जिनकी मृत्यु किसी बिमारी से होती है उनके मृत शरीर को गाड़ा जाता है तथा शेष का दाह संस्कार किया जाता है। भील जनजाति में मृतक के सभी रिश्तेदार व कुटुंबी के आ जाने से पूर्व मृतक के शरीर को नीम की शाखाओं से ढक दिया जाता है और खटिया (खाट) को झुला बनाकर टांग दिया जाता है। मृतक के शरीर को श्मशान ले जाने के पूर्व स्नान कराकर नवीन वस्त्र पहनाये जाते हैं तथा लकड़ी व बांस की सहायता से सीढ़ी (मढ़ा) बनाकर उसमें डंठल बिछाकर मृतक को लिटाकर डाम (गरम तीर से शरीर पर निशान बनाना) दिया जाता है।
(a) बड़वा
(b) कुहाजा देव
(c) बाबदेव
(d) इंद्रदेव
व्याख्या: (a) भील तंत्र-मंत्रों पर अधिक विश्वास करते हैं। घर में यदि कोई परिवार का सदस्य या पशु बीमार पड़ जाये या जहरीले जानवरों द्वारा सता दिया जाये तो ये देवी-देवताओं या भूत-प्रेतों का प्रकोप समझकर बड़वा के पास जाते हैं। बड़वा तंत्र-मंत्र से रोगी को रोग मुक्त करता है। यदि भूत-प्रेत संबंधी कोई बाधा हो तो गंडे ताबीज बांधकर उनके प्रभाव से मुक्त करता है। शारीरिक बीमारियां जैसे- सिर दर्द, पेट दर्द आदि में मंत्रों की सहायता लेकर झाड़ फूंक करता है। भील ग्राम में बड़वा के अलावा अन्य भील भी मंत्रों के जानकार होते हैं।
(a) गलदेव
(b) बाबदेव
(c) खोड़ियालमाता
(d) थाम्बोला देव
व्याख्या: (b) प्रायः प्रत्येक भील ग्राम में अपनी पारंपरिक व जाति मान्यताओं के अनुसार पृथक-पृथक ग्राम्य देव, जाति देव तथा कुल देवी-देवताओं के देवरे होते हैं। बाबदेव, भीलों के प्रमुख देव हैं, जिसे इन्द्रदेव भी कहते हैं। बाबदेव के नाम से दिवासा मनाते हैं। भीलों की मान्यता है कि बाबदेव की आराधना करने से वर्षा अच्छी होती है और धन-धान्य की कमी नहीं रहती। कुहाजा देव संपन्नता के प्रतीक व गाय-बैलों की बीमारी से रक्षा करते हैं। दीपावली की पड़वां को मुख्य रूप से इनकी पूजा की जाती है। गलदेव को भील नरसिंह भगवान के रूप में पूजते हैं। ये किसी भी मनोवांछित कार्य की सिद्धि के लिये मनौती मानते है कामना पूरी होने पर गल पर पांच या सात फेरे फिर कर मनौती उतारते हैं और बकरे मुर्गे की बलि चढ़ाते हैं। बाह्य बाधाओं के प्रकोप से बचने के लिए भीलों के घर में प्रमुख स्तंभ के पास गृह देव की स्थापना की जाती है, जिन्हे घिरसिरी या थाम्बोला देव कहते हैं। गृह देव में खत्रीजों (मृत पूर्वजों) का वास रहता है। प्रत्येक मांगलिक अवसर पर खत्रीजों के नाम उच्चरित कर पूजन करते हैं।
टिप्पणी: देशी भावर, भावर गोत्रीय भीलों का संरक्षक देव है, जो संकट के समय साथ देता है। सावन माता और मालिया बाबा देव कृषि व वन उपजों की रक्षा करते हैं। इनकी स्थापना खेत में ही होती है। भैरूदेव शक्ति के प्रतीक हैं। कहीं युद्ध में जाते समय भील इनकी वंदना करते हैं। भैंसा देव, भैंस पाड़ों की रक्षा करते हैं। किसी भी प्रकार के संकट आने पर भैंस पाड़ों के लिए ये भैंसा देव की मनौती मानकर बलि चढ़ाते हैं। सोवन माता पशुओं की रक्षिका हैं, जो जंगली जानवरों और जीव-जंतुओं से पशुओं की रक्षा करती हैं। होवण माता दैनिक व प्राकृतिक प्रकोपों से रक्षा करती हैं, इसलिए भील वर्ष में एक बार गांव की सीमा पर एकत्रित होकर होवण माता की आराधना व पूजा-अर्चना करते हैं।
विशेष: रकाली व शीतला माता शारीरिक विकार व बीमारियों की रोकथाम करती हैं। इसलिए भील शीतला सप्तमी पर नारियल का प्रसाद चढ़ाकर धूप ध्यान करते हैं। अपंग विकलांग अपनी मनोकामना पूर्ण होने के लिए खोड़ियाल माता (झाबुआ जिले में खोड़ियाल माता का मंदिर स्थित है) को मानते हैं। चोरी, डकैती में सफलता पाने के लिए चोरण माता की पूजा-अर्चना करते हैं। सफलता मिलने पर बकरे मुर्गे की बलि व मंदिरा की धार छोड़ते है। हालून देव कुंवर बगाजा, नासन मात माता, सालर माता, हारदा माता (सरस्वती), शंभू माता (शिव का नारी रूप) नकटी माता (शूर्पणखा) की परम्परानुसार पूजा करते है।
(a) उजवणी
(b) कोदरया
(c) भगोरिया
(d) साकरोत
व्याख्या: (a) भील अनावृष्टि के दिनों में कोई भी एक दिन निश्चित करके सामूहिक रूप से गांव के बाहर भोजन बनाकर खाते हैं। पूरा दिन वहां व्यतीत करते हैं। इसे उजेणी या उजवणी कहते हैं। यदि किसी भील ग्राम में कोई ढोली (ढोल बजाने वाला) मर जाता है तो अनावृष्टि के दिनों में मसान में ढोली के जलाने वाले स्थल पर हल में गधे जोतकर कोदरया (अनाज) बोते हैं। अतिवृष्टि होने पर बरसते पानी में घर के बाहर आंगन में एक मटकी नमक भर कर गाड़ने से वर्षा थम जाती है। भील परिवार में यदि किसी को माता निकली हो तो वह घर के बाह्य प्रवेश द्वार की एक ओर लच्छे (नाड़े) और मक्की के दाने से चौकोर बनाकर उसमें दो मानवाकृतियां बनाते हैं।
(a) नृत्य व संगीत का त्यौहार
(b) रंगो का त्यौहार
(c) नृत्य प्रस्तुति
(d) प्रणय पर्व
व्याख्या: (d) होली के एक सप्ताह पूर्व फागुन माह के अंतिम सप्ताह में मनाया जाने वाला सरस लोक पर्व या प्रणय पर्व है। भील तरुण-तरुणियों के लिए चयन और चुनौती तथा नयी फसल की दृष्टि से यह उमंग और उल्लास का प्रतीक है। संभवतः उक्त शब्द भीलों के भगोरदेव का नाम पर अथवा भगोर गोत्रीय भीलों द्वारा आरंभ किये जाने के कारण अथवा भीलों पर शैव का प्रभाव (भग- शीव, गौर - पार्वती) के रूप कारण प्रचलित है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि झाबुआ जिले में दाहोद के पास भगोर के भीलों ने यह त्यौहार आरंभ किया। उस क्षेत्र के भील धार जिले की कुक्षी तहसील के ग्राम वाणधा, आगर व घटवोरी में कर बसे हैं। उन्हें भगुरिया भील के नाम से ही संबोधित करते हैं।
(a) इंदौर
(b) होशंगाबाद
(c) भोपाल
(d) झाबुआ
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र अर्थात भिलांचल के झाबुआ, अलीराजपुर और खरगोन व धार जिले में भगोरिया लोक पर्व बसंतोत्सव के रूप में भील जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला प्रणय पर्व है, जो होली के समय 7 दिन तक आयोजित होता है। भगोरिया लोक पर्व मध्य प्रदेश के भील अंचलों में क्षेत्रवार इस तरह आयोजित होता है-
सोमवार को भावरा, कुंदनपुर, अलीराजपुर, रजला (झाबुआ), बड़ागुड़ा, पेटलावद (जोबट)।
मंगलवार को अंधरवाड़ा, खारड़, थांदला, पिटोल (झाबुआ)।
बुधवार को बोरी, बरझर, खट्टाली (जोबट ), कल्याणपुरा (झाबुआ), मदररानी (थांदला), चांदपुर (अलीराजपुर)।
गुरूवार को भगोर, जोबट, पारा, समोई (झाबुआ), फूलमाल (कट्ठीवाड़ा), सोण्डवा।
शुक्रवार को उदयगढ़ (जोबट ), कट्ठीवाड़ा, काली देवी (झाबुआ), अलीराजपुर, कदवाल, बालपुर (अलीराजपुर)।
शनिवार को बामनिया, मेघनगर, रानापुर (पेटलावद), वलैंडी (जोबट ), नानपुर उमराली (अलीराजपुर)।
रविवार को आमखुंट, सोरवा, छलकता, अकल्दा (अलीराजपुर), दौलिल्या (झाबुआ), झीरण (जोबट), काकनवानी (थांदला), झाबुआ आदि के भगोरिया मेले लगते हैं।
विशेष: मध्य प्रदेश में अलीराजपुर जिले के बालपुर में आयोजित होने वाला भगोरिया मेला सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
(a) तिहवार्या हाट
(b) उजाड़िया हाट
(c) गुलालिया हाट
(d) गोल गधेड़ो हाट
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में भील जनजाति द्वारा भगोरिया पर्व के एक सप्ताह पूर्व जो हाट (बाजार) लगते है, उन्हें तिहवार्या हाट कहा जाता है। यह भगोरिया के तैयारी की हाटें होती है, जो अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग दिन लगती है। भील बकरे, मुर्गे, अनाज आदि बेचकर वस्त्र, शृंगार सामग्री व अपनी त्यौहार संबंधी वस्तुएं क्रय करते हैं।
टिप्पणी: उजाड़िया-भगोरिया पर्व में आए हुए जनजातीय लोग पर्व के अंतिम दो दिनों में मेले से अपनी आवश्यकता की वस्तुएं खरीदते हैं। चूंकि इसके बाद यह पर्व समाप्त हो जाता है और मेला उजड़ जाता है, इसलिए इसे उजाड़िया कहा जाता है।
(a) चिमाता
(b) बैवार
(c) झूमिंग
(d) पढ़त
व्याख्या: (a) भील जनजाति का प्रमुख व्यवसाय कृषि है। इनके द्वारा की जाने वाली कृषि को दजिया या चिमाता कहा जाता है। आर्थिक आधार के रूप में कृषि भीलों का प्रमुख स्त्रोत है। कृषि कृत उपजों में मक्का, ज्वार, बाजरा, कोदरया, चना, उड़द, मूंग आदि प्रमुख है। मक्का व ज्वार अधिक पैदा होती है। पथरीली व अनुपजाऊ जमीन के कारण अन्य फसलें जैसे- गेहूं, चना तथा तुअर आदि की पैदावार कम होती है। हल, ओखर, कोल्पा (कुपो), तीरफन आदि कृषि औजार है। फसल की बुवाई, निंदाई और कटाई के समय भील परिवार एक दूसरे को सहयोग देते है, जिसे हल्मा कहते हैं।
(a) कृषक
(b) शिकारी और योद्धा
(c) व्यापारी
(d) खानाबदोश चरवाहे
व्याख्या: (b) मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी जनजाति भील मूल रूप से शिकारी और योद्धा है। इसके अतिरिक्त भील अच्छे कृषक भी हैं। लकड़ी काटकर बेचना, मुर्गी व बकरी पालन, मत्स्य पालन और जंगल से शहद, गोंद, महुआ एकत्र करके बाजार में बेचना भील जनजाति का प्रमुख व्यवसाय है। इसके अतिरिक्त महुआ की शराब और ठंड के मौसम में ताड़ी बेचकर भील जनजाति के लोग धन अर्जित करते हैं।
टिप्पणी: भीलों में मुख्यतः पितृ सत्तात्मक संयुक्त परिवार पाए जाते हैं। इनमें गांव के मुखिया को गमेती कहा जाता है। भीलों का सबसे प्रिय संबोधन मामा है।
(a) भगोरिया
(b) डोहिया
(c) गहर
(d) वीरवाल्या
व्याख्या: (d) भील जनजाति द्वारा फागुन माह में होली पर्व के अवसर पर भगोरिया, डोहिया एवं गहर नृत्य किये जाते हैं किंतु वीरवाल्या नृत्य एक धार्मिक नृत्य है, जो श्रावण माह और नवरात्रि में बड़वा के द्वारा किया जाता है। वीरवाल्या लोक नृत्य में गायक ढांक और कामड़ी के स्वरों पर लंबी-लंबी धार्मिक गाथाएं गाता है। इसके अतिरिक्त डोहो व गरबी नृत्य भी भील जनजाति द्वारा दीपावली के अवसर पर धार्मिक नृत्य के रूप में किये जाते हैं।
टिप्पणी: भगोरिया नृत्य को भील जनजाति द्वारा होली के अवसर पर मांदल, ढोल थाली, कुंडी की थाप पर भी और बांसुरी की तान पर भील युवकों के हाथ में तीर-कमान, फालिया व पैरों में घुंघरू तथा भील युवतियों के हाथ में रूमाल लेकर किया जाता है। इसके अतिरिक्त डोहिया नृत्य भी होली के अवसर पर भगोरिया हाटों में किया जाता है, जिसमें भील युवक-युवतियां खड़े होकर विभिन्न प्रकार से अंग संचालन करते हुए कभी आगे बढ़ते हैं तो कभी पीछे हटते हैं और दायीं बायीं ओर झुककर झुमते हुए नृत्य करते हैं।
(a) ढांक
(b) कुण्डी
(c) बांसुरी
(d) कामड़ी
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में निवास करने वाले भील जनजाति के नवयुवक नृत्य संगीत के अतिरिक्त बांसुरी वाद्य यंत्र को बजाने का विशेष शौक रखते हैं। बांसुरी को जोबट व अलीराजपुर क्षेत्र के भील पांवली और रोहली तथा झाबुआंचल में इसे बाहली कहते हैं। बांसुरी तीन प्रकार की होती हैं- एक तो बड़ी और मोटे बांस की होती है, जिसे होठों पर आड़ी रखकर दमदार फूंक से बजाते हैं। दूसरी का आकार पतला होता है तथा यह लगभग 18-20 इंच की हरे बांस की पोंगली से बनाई जाती है। इसमें 6 छिद्र होते हैं, निचले हिस्से में पांच और ऊपरी हिस्से में एक छिद्र होता है। भील इसे स्वयं बनाते हैं। तीसरी प्रकार की बांसुरी को सुक्टी कहते हैं, जो दो बांसो को जोड़कर बनाई जाती है।
टिप्पणी: ढाक एक डमरूनुमा वाद्य यंत्र होता है, जिसे नवरात्रि या दशहरे के अवसर पर बड़वे के साथी द्वारा डंडी की सहायता से बजाया जाता है। कामड़ी भील जनजाति का मौलिक व परंपरागत वाद्य यंत्र है, जो बांस की चीपों से निर्मित होता है तथा ढाक का सहयोगी वाद्य है।
विशेष: मांदल वाद्य यंत्र का उपयोग भील जनजाति द्वारा शादी-ब्याह के अवसर पर होता है, जो ढोलनुमा वाद्य यंत्र है। इसका खोल सागौन या सिमनी की लकड़ी से निर्मित होता है, जिसे दोनों ओर बकरे के चमड़े से मढ़ा जाता है। इसके अतिरिक्त कुंडी भी भील जनजाति का प्रिय वाद्य यंत्र है। भील जनजाति के लोग अपनी सामान्य बोलचाल की भाषा में नगड़िया को कुंडी कहते हैं तथा यह मिट्टी से निर्मित होती है। इसके ऊपर बकरे का चमड़ा चढ़ाया जाता है और कमर में बांधकर छोटी-छोटी डण्डियों से बजाया जाता है।
(a) मध्य प्रदेश
(b) राजस्थान
(c) छत्तीसगढ़
(d) बिहार
व्याख्या: (c) भिलाला भिल जनजाति की एक उपजाति है और यह अनुसूचित जनजाति के अंतर्गत आते हैं, इन्हें उजला भील भी कहते हैं। भील जाति दो प्रकार की हैं- उजलिया / क्षत्रीय भील (भिलाला) तथा लंगोट भील। भिलाला जनजाति का मूल स्थान छत्तीसगढ़ माना जाता है जबकि मध्य प्रदेश में यह जनजाति अलिराजपुर, धार एवं बड़वानी जिलों में निवास करते हैं।
(a) गोंड
(b) भील
(c) कीकर
(d) अंगा
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश की दूसरी बड़ी जनजाति गोंड है। प्रोटो ऑस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से संबंधित गोंड जनजाति का निवास मुख्यतः विंध्य और सतपुड़ा के पर्वतीय क्षेत्रों में है। प्रसिद्ध नृतत्वशास्त्री श्री हिस्लोप के अनुसार गोंड शब्द की उत्पत्ति, तेलुगू भाषा के कोंड या गोंडा शब्द से हुई है, जिसका अर्थ- पहाड़ (पर्वत) होता है। यह जनजाति पहाड़ी क्षेत्र में निवास करती है, इसलिए इसे गोंड कहा गया। मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग को छोड़कर अधिकांशत: दक्षिण-पूर्वी भाग में सर्वाधिक गोंड जनजाति निवास करती है।
टिप्पणी: गोंड जनजाति मूल रूप से द्रविड़ियन परिवार के माने जाते हैं तथा वह द्रविड़ संस्कृति का अनिवार्य अंग है। गोंड जनजाति जिस बोली या भाषा का प्रयोग दैनिक जीवन में करते है, वह गोंडी भाषा कहलाती है।
(a) गोंड
(b) सहरिया
(c) कोल
(d) भारिया
व्याख्या: (a) गोंड जनजाति भारत का सबसे बड़ा जनजातीय समूह है, जो मध्य प्रदेश की दूसरी बड़ी जनजाति है। यह जनजाति मध्य प्रदेश के मंडला, डिंडोरी, बालाघाट, सिवनी, छिंदवाड़ा आदि जिलों में निवास करती है। जनगणना 2011 के असार, मध्य प्रदेश में गोंड जनजाति की जनसंख्या 50.93 लाख है, जो कुल जनजातीय जनसंख्या का 33.25 प्रतिशत है। गोंड जनजाति की सर्वाधिक जनसंख्या छिंदवाड़ा जिले में 6.2 लाख है, जिनकी साक्षरता दर 60.1 प्रतिशत है।
(a) पठौनी विवाह
(b) चढ़ विवाह
(c) हठ विवाह
(d) चिथोड़ा विवाह
व्याख्या: (b) गोंड जनजाति के लोग मंडप में प्रमुख रूप से 3 तरह से विवाह करते है, जिसे मंडवा तरी विवाह कहा जाता है। पहला पठौनी विवाह, दूसरा चढ़ विवाह और तीसरा लमसना विवाह। गोंड जनजाति में चढ़ विवाह सर्वाधिक प्रचलित है।
टिप्पणी:
पठौनी विवाह: गोंड जनजाति के इस विवाह प्रथा में लड़की की बारात लड़के के यहां जाती है। मंडप में भांवरे के पश्चात लड़की अपने दूल्हे को विदा कराके अपने साथ घर लाती है। वर्तमान समय में पठौनी विवाह प्रथा गोंड जनजाति में विलुप्त होने की कगार पर है।
चढ़ विवाह: गोंड जनजाति के इस विवाह प्रथा में दूल्हा बारात लेकर जाता है और परंपरागत विधि विधान से विवाह संपन्न होता है।
लमसना विवाह: गोंड जनजाति में लमसना को घर जमाई भी कहते हैं। इस विवाह में लड़का विवाह पूर्व ससुराल में रहता है और घर-परिवार, सास-ससुर की सेवा करते हुए घर खेत व जंगल का काम करता है। लमसना की अवधि 3 वर्ष की होती है। उसके पश्चात लड़की का पिता स्वयं खर्च उठाकर अपनी बेटी का विवाह लमसना के साथ कर देता है, जिसे लमसनाई जीतना कहते हैं।
बलात विवाह: गोंड जनजाति की इस विवाह प्रथा में लड़का जबरन लड़की को अपने घर में रख लेता है या हाट बाजार में हल्दी छिंट देता है, जिसके बाद लड़की से विवाह करने का हकदार हो जाता है। बलात विवाह गोंड जनजाति में अधिकांश तभी होता है जब लड़की और लड़का के माता-पिता किसी तरह विवाह करने के लिए सहमत न हों।
विशेष: विधि परंपरागत विवाहों के अतिरिक्त गोंड जनजाति में भगेली विवाह (लड़के-लड़की की आपसी सहमति से प्रेम विवाह), विधवा विवाह, रखेली विवाह, पोलीथर विवाह, दूध लौटावा विवाह (सगे बुआ या मामा के लड़के व लड़कियों का आपस में विवाह) आदि प्रचलित हैं। गोंड जनजाति में विधवा भाभी (भौजाई) को देवर चूड़ियां (चुरियां) पहनाकर पत्नी के रूप में रख सकता है। दावा तोड़ने की प्रथा के अनुसार नया पति स्त्री के पहले पति को पंचो द्वारा घोषित नगद राशि दंड स्वरूप देता है। गोंड जनजाति में बहुविवाह प्रथा का भी प्रचलन है, जिसमें एक पति एक से अधिक पत्नियां रख सकता है।
(a) ज्येष्ठ माह
(b) फाल्गुन माह
(c) चैत्र माह
(d) कार्तिक माह
व्याख्या: (a) गोंड जनजाति द्वारा बिदरी पूजा ज्येष्ठ माह की किसी भी तिथि को ग्रामोत्स्व के रूप में गांव के मुखिया के आंगन में की जाती है। बिदरी पूजा का अभिप्राय बादल पूजा से है। बिदरी पूजा में गोंड जनजाति द्वारा ठाकुर देव (पूज्य देवता) एक काली पोई (काली मुर्गी), एक सफेद और लाल मुर्गा, तीन नारियल, दूध, शराब, रार (अगरबत्ती) आदि का पूजन सामग्री के रूप में उपयोग किया जाता है। गोंड जनजाति में बिदरी पूजा के संदर्भ में धारणा है कि बिदरी पूजा से अच्छा फसल तैयार होती है।
टिप्पणी: बक बंधी- यह त्यौहार आषाढ़ माह की पूर्णिमा अर्थात गुरू पूर्णिमा को मनाया जाता है, जिसमें पलास के पौधे की जढ़ को हल्दी से रंग कर प्रत्येक युवक द्वारा दायी कलाई में बांधा जाता है। यह एक प्रकार का प्रकृति जन्य रक्षाबंधन है। इसके अतिरिक्त सावन मास की अमावस्या को हरढिली का पर्व मनाया जाता है, जो वास्तविक रूप से खरीफ फसल की बोनी के समापन का पर्व है।
विशेष: गोंड जनजाति में भाद्र मास के शुक्ल पक्ष की किसी भी तिथि को अपनी सुविधानुसार नवाखानी त्यौहार मनाया जाता है। नये अन्य एवं फलों को सर्वप्रथम अपने देवी-देवताओं और पूर्वजों को अर्पण करके उसे खाना नवखानी कहलाता है। छेरता पर्व पौष मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह गोंड जनजाति में बच्चों का प्रमुख त्यौहार है।
(a) मड़ई
(b) जवारा
(c) नवाखानी
(d) बिदरी
व्याख्या: (a) गोंड जनजाति द्वारा दीपावली की प्रतिप्रदा की कार्तिक पूर्णिमा तक लगभग 15 दिन मड़ई पर्व मनाया जाता है। यह एक धार्मिक उत्सव है। मड़ई शब्द की उत्पत्ति मड़वा से हुई है। मड़वा अर्थात जिसमें विवाह संपन्न होता है। गोंड जनजाति के मान्यताओं के अनुसार गुरू दौगुन का विवाह एक मंडप के नीचे गंगाइन देवी के साथ दीपावली प्रतिप्रदा को हुआ था, तब से उन्ही की स्मृति में मड़ई पर्व मनाया जाता है।
टिप्पणी: मड़ई पर्व के अवसर पर दिन में हाट (बाजार ) का आयोजन होता है तथा मंडप बनाकर दौगुन और गंगाइन देवी का विवाह रचा कर मड़ई बांधी जाती है। मड़ई बांधने को चण्डी खड़ी करना भी कहा जाता है।
विशेष: गोंड जनजाति द्वारा जवारा धार्मिक पर्व वर्ष में दो बार एक कुंवार माह और दूसरा चौत्र माह में नवरात्रि पर्व के अवसर पर मनाया जाता है।
(a) जन्म से
(b) मृत्यु से
(c) विवाह से
(d) तांत्रिक क्रिया से
व्याख्या: (c) गोंड जनजाति में दूध लौटावा प्रथा विवाह से संबंधित है। दूध लौटावा विवाह प्रथा में गोंड जनजाति अपने सगे बुआ व मामा के लड़के-लड़कियों का आपस में विवाह संपन्न करवाते हैं। गोंड जनजाति में विधवा विवाह एवं बहुविवाह प्रथाओं का प्रचलन है। इसके अतिरिक्त अपहरण या पोलीथर विवाह का भी प्रचलन है। इनमें अंतर्विवाह और बहिर्विवाह के नियमों का कठोरता से पालन किया जाता है।
(a) वेवात
(b) ओझा
(c) देवरी
(d) धनवार
व्याख्या: (c) गोंड मध्य प्रदेश की सबसे महत्वपूर्ण जनजाति है, जो प्राचीन काल के गोंड राजा को अपना वंशज मानती है। गोंड जनजाति के पुजारी को देवरी कहा जाता है। गोंड समाज पितृ सत्तात्मक है तथा गांव का मुखिया (गोटिया) मुकद्दम होता है। इसके अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण लोगों में गुनिया, बरुआ व पंडा होते हैं, जो तंत्र-मंत्र व पूजा-पाठ का कार्य संपन्न करवाते हैं।
(a) कोदों का भात
(b) बड़का माठा
(c) कुटकी
(d) पांजर कांदा
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में निवास करने वाली गोंड जनजाति का मुख्य आहार (भोजन) कोदों का भात है। इसके अतिरिक्त मकाई का पेज खान-पान का अभिन्न हिस्सा है। गोंडो का सर्वाधिक प्रिय पेय मंदिरा (शराब) है। गोंड जनजाति द्वारा महुआ को देव अन्न कहा जाता है।
टिप्पणी: गोंड जनजाति द्वारा सुबह बासी भोजन, दोपहर में पेज पानी और रात में बियारी का भात खाने की परंपरा है।
(a) भील
(b) कमार
(c) गोंड
(d) बैगा
व्याख्या: (c) गोंड जनजाति में घोटुल प्रथा अत्यंत लोकप्रिय प्रथा है। घोटुल मिट्टी लकड़ी आदि से निर्मित कुटिया (झोपड़ी) को कहते हैं, जहां गोंड जनजाति समुदाय के युवक-युवतियां को बुजुर्ग व्यक्ति की देख-रेख व संरक्षण में आपस में मिलने-जुलने, जानने-समझने का अवसर दिया जाता है। घोटुल में भाग लेने वाली युवतियों को मोतियारी एवं लड़कों को छेलिक तथा उनके प्रमुख को बेलोसा एवं सरदार कहा जाता है। घोटुल प्रथा गोंड जनजाति की स्वतंत्रता, प्रसन्नता, परस्पर मैत्री, सहानुभूति एवं प्रेम का परिचायक है।
टिप्पणी: वर्ष 1947 में वेरियर एल्विन (Verrier Elwin) ने The Muria and their Ghotul नामक पुस्तक प्रकाशित की थी।
(a) नोहडोरा
(b) गोदना
(c) पिथोरा
(d) कोहबर
व्याख्या: (a) गोंड जनजाति की महिलाओं द्वारा घर में मिट्टी की उभरी रेखाओं से भित्ति अलंकरण किया जाता है, जो नोहडोरा कहलाती हैं। नोहडोरा गोंडी चित्रकला का मूल प्रस्थान बिंदु है, जहां से गोंडी चित्रकला का प्रादुर्भाव हुआ है। दीवाल पर भित्ति अलंकरण बनाना गोंड जनजाति की महिलाओं का प्रिय शौक है। वह अपने घरों को अलंकृत करने के लिए चिड़ियां, घोड़े, मयूर, बैल और मनुष्यों के चित्र बनाती है। गोंड जनजाति द्वारा भित्ति अलंकरण के लिए गेरू, छुही, पीली व लाल मिट्टी, नील, चूना आदि का प्रयोग किया जाता है।
(a) खंडवा
(b) इंदौर
(c) रीवा
(d) छिंदवाड़ा
व्याख्या: (d) अबुझमाड़िया जनजाति गोंडो की उपजाति है। ये अबुझमाड़ क्षेत्र में रहते हैं। ये जनजाति मध्य प्रदेश के पठारी भाग जिसमें छिंदवाड़ा, बैतूल, सिवनी और मंडला जिलों में निवास करती है। अबुझमाड़ शब्द का अर्थ है अज्ञात जंगली ऊंची भूमि के निवासी।
(a) फेमा फल्या
(b) जनगण सिंह श्याम
(c) श्री नर्मदा गोंड
(d) आनंद सिंह श्याम
व्याख्या: (b) स्वर्गीय जनगण सिंह श्याम गोंड चित्रकला के प्रमुख स्तंभ कलाकार थे, जिनका जन्म वर्ष 1962 में मंडला (वर्तमान डिण्डोरी जिले) में हुआ था। जनगण सिंह श्याम ने गोंडी चित्रकला को नये समसमायिक आयाम प्रदान करते हुए मध्य प्रदेश के विधानसभा भवन और भारत भवन के गुंबद को चित्रित किया है, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1985 में मध्य प्रदेश शासन द्वारा शिखर सम्मान से सम्मानित किया गया है। वर्ष 1989 में इनके द्वारा पेरिस के पोम्पिडो सेंटर में बनायी गई अद्भुत कृति मैजिकिएन्स-डे-ला-टेरे (मैजिशियन ऑफ द अर्थ) है।
टिप्पणी: स्वर्गीय जनगण सिंह श्याम, नर्मदा प्रसाद तेकाम, आनंद सिंह श्याम, कलाबाई, दिनकर सिंह श्याम, भज्जू श्याम, मोहन, दुर्गा, सुभाष, राजेंद्र आदि गोंड चित्रकला के प्रमुख चित्रकार हैं।
(a) चिकित्सक
(b) सफाई वाली
(c) ओझा
(d) गुदना कलाकार
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के गोंड व बैगा जनजाति की महिलाओं को गोधारिन कहा जाता है। गोंड जनजाति में गुदना गुदवाने की प्रथा सर्वाधिक है। गोंड और बैगा जनजाति में गुदना गुदने का कार्य बादी जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है। गोंड जनजाति में बांह, हाथ, पोंहचा, गले, छाती, मस्तक, पैर आदि शरीर के विभिन्न भागों में 6 से 7 वर्ष की उम्र से गुदना गुदवाना प्रारंभ होता है।
टिप्पणी: बैतूल जिले में गोंड जनजाति द्वारा सर्वप्रथम भृकुटी पर अर्द्धचंद्राकार आकृति का गुदना और मंडला जिले में सर्वप्रथम पोहचा व चेहरे पर बायीं आंख और गाल पर टिपका गुदवाया जाता है।
विशेष: मध्य प्रदेश के ग्राम लालपुर की शांतिबाई और भरभई की चमेलीबाई बादी जाति की कुशल गुदने गोदने वाली महिलाएं हैं।
(a) विंध्य और सतपुड़ा क्षेत्र
(b) उज्जैन और जबलपुर जिले
(c) उमरिया और मंडला क्षेत्र
(d) मंडला और बालाघाट जिले
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश की जनजातियों में बैगा जनजाति समूह अपनी विशेष आदिम पहचान रखता है तथा बैगा अपने आप को जंगल का राजा कहते हैं। बैगा प्रकृति पुत्र है, जो प्रकृति के सानिध्य में पूर्वी सतपुड़ा व मैकाल क्षेत्र के अंतर्गत मंडला, डिंडोरी व बालाघाट जिले में रहते हैं।
(a) डिंडोरी
(b) शहडोल
(c) सिवनी
(d) बालाघाट
व्याख्या: (a) बैगा चक क्षेत्र मध्य प्रदेश की बैगा जनजाति का मुख्य निवास स्थल है, जो पूर्व में प्रदेश के मंडला जिले के अंतर्गत आता है, लेकिन वर्तमान में यह क्षेत्र प्रदेश के डिंडोरी जिले में आता है। बैगा मुख्य रूप से मंडला, समनापुर डिंडोरी, बालाघाट, सरगुजा (छत्तीसगढ़), बिलासपुर (छत्तीसगढ़) व अमरकंटक के पहाड़ी अंचलों में निवास करते हैं। बैगाओं का विशेष आवास मंडला और डिंडोरी है। यह क्षेत्र लगभग 60 किमी. चौड़ा और 300 किमी. लम्बा है, जो पूर्वी सतपुड़ा और मैकाल पर्वत की उपत्यकाओं में फैला है। यह पूरा क्षेत्र गहन साल वृक्षों से आच्छादित है। बैगाचक में आवागमन के साधन उपलब्ध नहीं है।
(a) प्रो. श्यामाचरण दुबे
(b) डॉ. आर. के. मुखर्जी
(c) हॉबहाउस
(d) वेलियर एल्विन
व्याख्या: (a) प्रो. श्यामाचरण दुबे एक प्रसिद्ध मानवशास्त्री है, जिन्होंने जनजातियों पर विस्तृत अध्ययन किया है। इनका जन्म 25 जुलाई, 1922 को मध्य प्रदेश के नरसिंहपुर जिले में हुआ था तथा 4 फरवरी, 1996 को निधन हुआ। इन्हीं अध्ययनों के अंतर्गत उन्होंने गोंड जनजाति के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं का भी अध्ययन किया है। ट्राइबल एंड इंडियन सिविलाइजेशन यूनिवर्स एक भारतीय ग्राम, मानव और संस्कृति आदि प्रो. श्यामाचरण दुबे की प्रमुख कृतियां है।
(a) लरू कज
(b) झाबुआ
(c) हलाली
(d) मरगी
व्याख्या: (a) भारत की सबसे बड़ी जनजाति तथा मध्य प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति गोंड द्वारा सुअर की बलि को प्रचलित रूप से लरू कज कहा जाता है।
(a) सोनमाई
(b) सुनमाई
(c) सोअन
(d) सोअर
व्याख्या: (b) बैगा जनजाति में स्त्रियों के गर्भवती होने पर गर्भवती महिला को समय-समय पर आवश्यक देख-रेख या जड़ी-बूटियों के सेवन की सलाह देने वाले वरिष्ठ महिला को सुनमाई कहा जाता है।
(a) विवाह संस्कार
(b) जन्म संस्कार
(c) मृत्यु संस्कार
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं
व्याख्या: (a) बैगा जनजाति के संदर्भ में करस कौआ का अर्थ विवाह घर में कलश स्थापना है। कलश कौआ की स्थापना बैगा जनजाति में विवाह संस्कार के समय वर पक्ष के यहां घर की दाहिनी ओर तथा वधू पक्ष के यहां बायीं ओर की जाती है। करस कौआ मांगलिकता का प्रतीक है। करस कौआ को मिट्टी के घड़े में ओदो या धान, कुछ पैसे व जग्री के तेल से दीया जलाकर तैयार किया जाता है तथा विवाह के समय करस कौआ के समय वर पूर्व की ओर तथा वधू पश्चिम की ओर मुंह करके बैठती है।
(a) उधरिया विवाह
(b) लमसेना विवाह
(c) चोर विवाह
(d) उठवा विवाह
व्याख्या: (a) बैगा जनजाति में दोनों पक्षों के माता-पिता की स्वीकृति न होने पर नवयुवक-युवती अपनी स्वेच्छा से किसी रिश्तेदार की मदद से विवाह करते हैं, जिसे उधरिया विवाह प्रथा कहा जाता है। इसके अतिरिक्त माता-पिता की सहमति होने पर दोनों पक्ष की ओर से सगाई करके विवाह करने की प्रथा उठवा विवाह तथा प्रणय संबंधों के कारण प्रेम विवाह के रूप में चोर विवाह करने की प्रथा भी बैगा जनजाति में पाई जाती है।
(a) जर्मन चुड़ा
(b) तरकुल
(c) कांच की मोतियों से निर्मित माला
(d) करधनी
व्याख्या: (b) बैगा जनजाति में स्त्रियां आभूषण प्रिय होती हैं। वह कान के उपरी हिस्से में मुंगा बालियां, निचले हिस्से में तरकुल पहनती हैं। तरकुल को तड़की भी कहा जाता है, जो लकड़ी की होती है। इसके अतिरिक्त तड़की को महिलोन के पत्ते व ज्वार के तने से भी बनाया जाता है। तरकुल को बैगा स्त्रियों के सुहाग की निशानी के रूप धारण करना अनिवार्य माना जाता है।
टिप्पणी: बैगा जनजाति अपने शरीर पर बहुत कम वस्त्र पहनती हैं। पुरुष प्रायः पटका (लंगोटी) पहनते हैं तथा स्त्रियां 3 प्रकार की मुंगी, बिगरा व चगदरिया लुगड़ी (साड़ी) पहनती हैं। बैगा जनजाति के पुरुष हाथ में जर्मन चूड़ा पहनते हैं तथा कान में पीतल से निर्मित बाली पहनते हैं।
(a) मंडला- शहडोल
(b) बुंदेलखंड
(c) मुरैना-श्योपुर शिवपुरी
(d) रीवा-सीधी
व्याख्या: (c) सहरिया जनजाति मध्य प्रदेश की विशेष पिछड़ी जनजाति है, जो विकास की दृष्टि से अत्यंत पिछड़ी और अपनी आदिमता की अंतिम पहचान की स्थिति में है। कोलेरियन परिवार की सहरिया जनजाति का मुख्य संकेंद्रण प्रदेश के ग्वालियर संभाग में है। यह मध्य प्रदेश के उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में मुख्यतः गुना, शिवपुरी, मुरैना, भिंड, ग्वालियर, श्योपुर में निवास करती है। सहरिया जहां रहते हैं, उस स्थान को सहराना कहते हैं।
(a) पारधी
(b) कोरकू
(c) अगरिया
(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश की पारधी जनजाति वन्य प्राणियों के शिकार एवं अन्य अपराधों के लिए अधिक जानी जाती है। पारधी मराठी शब्द पारध का तद्भव रूप है, जिसका अर्थ होता है आखेट। वास्तव में पारधी जनजाति एक आखेटक (शिकारी) जनजाति है, जो वन पशुओं के शिकार करने में अत्यंत कुशल होती है परंतु महिलाओं को शिकार करने की अनुमति नहीं होती है। पारधी आखेट में जाल का प्रयोग करते हैं।
(a) गौंड
(b) कोरकु
(c) भील
(d) जौनसारी
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश एक बहुल जनजातीय प्रदेश है, जहां अनेक जनजातियां निवास करती हैं। प्रदेश की जनजातियों में गोंड, भील, सहरिया, कोरकू आदि अनेक जनजातियां शामिल हैं परंतु जौनसारी जनजाति मध्य प्रदेश की जनजाति नहीं है।
(a) भील
(b) गोंड
(c) कोल
(d) कोरकू
व्याख्या: (b) गोंड मध्य प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है, जो प्रदेश के मंडला, डिंडोरी, सिवनी, बालाघाट, छिंदवाड़ा आदि जिलों में निवास करती है। गोंडो में विवाह की कई प्रथाएं प्रचलित हैं, जिसमें सेवा विवाह की प्रथा भी शामिल है। इसे लमसना विवाह भी कहते हैं। वर पक्ष जब वधू मूल्य देने में असमर्थ होता है तो लड़का विवाह पूर्व ससुराल में रहता है और घर-परिवार, सास-ससुर की सेवा करते हुए घर, खेत व जंगल का काम करता है। लमसना की अवधि 3 वर्ष की होती है। उसके पश्चात लड़की का पिता स्वयं खर्च उठाकर अपने बेटी का विवाह लमसना के साथ कर देता है, जिसे लमसनाई जीतना कहते हैं।
(a) गोंड
(b) भील
(c) कोरकू
(d) अगरिया
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश की अगरिया जनजाति लोहासुर को अपना देवता मानती है, जिनका निवास धधकती हुई भट्टियों में माना जाता है। अगरिया जनजाति मध्य प्रदेश के मंडला तथा शहडोल जिले में पायी जाती है, जिनका परंपरागत व्यवसाय लोहे का कार्य करना है। अगरिया जनजाति के लोग अपने देवता को काली मुर्गी की भेंट चढ़ाते हैं तथा मार्ग शीर्ष महीने में दशहरे के दिन तथा फाल्गुन मास में लोहा गलाने के यंत्रों की पूजा करते हैं।
(a) पाठशालाएं
(b) छात्रावास
(c) छात्रवृत्तियां
(d) उपर्युक्त सभी
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश कल्याण विभाग द्वारा अनुसूचित जाति एवं जनजाति के छात्र-छात्राओं को शिक्षण के साथ निःशुल्क आवास, भोजन, स्वच्छ पेयजल, विद्युत आदि की सुविधा देने के उद्देश्य से आश्रम शालायें, जूनियर, सीनियर, सीनियर उत्कृष्ट, महाविद्यालयीन छात्रावासों तथा विशिष्ट आवासीय संस्थाओं का संचालन किया जा रहा है, जिसमें लाखों विद्यार्थी लाभांवित हो रहे हैं। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा विद्यार्थियों की प्राथमिक स्तर से उच्च स्तर तक की शिक्षा के लिए छात्रवृत्ति प्रदान की जाती है।
(a) गोंड
(b) भील
(c) कोरकू
(d) बैगा
व्याख्या: (b) वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश की सबसे अधिक घनी आबादी वाला वर्ग भील है, जिनकी कुल संख्या 59.93 लाख है तथा भारत में सबसे अधिक आबादी वाला वर्ग गोंड है। मध्य प्रदेश में गोंड जनजाति प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है, जिसकी मध्य प्रदेश में जनसंख्या 50.93 लाख है।
(a) असम
(b) उड़ीसा
(c) मध्य प्रदेश
(d) बिहार
व्याख्या: (c) भारतवर्ष की सबसे अधिक आदिवासी जनसंख्या वाला राज्य मध्य प्रदेश है। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 1.13 करोड़ है, जो मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या का 15.6 प्रतिशत है तथा अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 1,53,16,784 है, जो मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या का 21.09 प्रतिशत है।
(a) भील
(b) गोंड
(c) कोरकू
(d) बैगा
व्याख्या: (a) 1857 ई. के स्वतंत्रता आंदोलन में मध्य प्रदेश की भील जननजाति ने सक्रिय रूप से भाग लिया था। भील जनजाति के जननायक टंट्या भील ने 15 वर्ष की आयु में ही अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था, जिसके नेतृत्व में बड़वानी क्षेत्र के आदिवासियों ने विद्रोह किया था।
(a) धार, मंडला और झाबुआ
(b) रीवा, सीधी और सिंगरौली
(c) बैतूल, छिंदवाड़ा और खंडवा
(d) नीमच, रतलाम और मंदसौर
व्याख्या: (a) उपर्युक्त विकल्पों में से धार, मंडला और झाबुआ जिले मध्य प्रदेश के ऐसे जिले हैं जहां पर वहां की कुल जनसंख्या का 50 प्रतिशत से अधिक भाग में आदिवासी निवास करते हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार धार जिले में 55.94 आबादी, मंडला जिले में 57.88 आबादी तथा झाबुआ जिले की 87 प्रतिशत आबादी जनजातीय समुदाय की है। झाबुआ जिला आदिवासी जनसंख्या में मध्य प्रदेश में अलीराजपुर (89 प्रतिशत) के बाद दूसरे स्थान पर है।
(a) कोल
(b) गोंड
(c) कोरकू
(d) भिलाला
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में निवास करने वाली कोरकू जनजाति हिंदूओं की तरह देवी-देवताओं के अस्तित्व पर विश्वास करती है। इनके देवी-देवताओं में प्रमुख रूप से महादेव (शिवशंकर), मेघनाथ, रावण, महावीर देव, किलार मुठवा, खेड़ा देव, सूर्य-चंद्रमा और नर्मदा व ताप्ती माई की पूजा की जाती है।
टिप्पणी- देवाधिदेव महादेव कोरकू जनजाति के पितामह है, इसलिए शिवरात्रि के अवसर पर महादेव पूजा की जाती है। कोरकुओं की ऐसी मान्यता है कि इनकी उत्पत्ति के लिए रावण ने भगवान शिव से प्रार्थना की थी, इसलिए वह होली के अवसर पर रावण की पूजा करते हैं तथा मेघनाथ ने इनकी युद्ध में रक्षा की थी, इसलिए दशहरे के अवसर पर मेघनाथ खम्ब की स्थापना कर कोरकू जनजाति मेघनाथ की पूजा करती है।
(a) राजस्थान
(b) छत्तीसगढ़
(c) मध्य प्रदेश
(d) उत्तराखंड
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश देश का सर्वाधिक अनुसूचित जनजाति जनसंख्या वाला राज्य है, जिसकी कुल जनजातीय जनसंख्या 1,53,16,784 है। मध्य प्रदेश में कुल 43 जनजातियां पायी जाती हैं।
(a) चिथोड़ा
(b) निगोड़ा
(c) भोमका
(d) कोरका
व्याख्या: (a) कोरकू जनजाति में चिथोड़ा विवाह प्रथा के अंतर्गत कोरकू पटेल गांव में से 2 व्यक्तियों को विवाह के लिए बात-चीत हेतु लड़की के यहां भेजता है, इन दोनों (मध्यस्थ) व्यक्तियों को चिथोड़ा कहा जाता है। चिथोड़ा विवाह प्रस्ताव को लेकर अधिकांशत: गुरूवार की शाम को लड़की के गांव जाता है और दूसरे दिन अर्थात शुक्रवार को लड़की के पिता, ग्राम पटेल और कोटवार को बुलाकर विवाह के लिए बातचीत करता है। यदि विवाह तय हो जाए तो लड़की का पिता 'सीडू आनी' कहता है अर्थात मदिरा (शराब) का निमंत्रण देता है। सीडू आनी में एक पाव गुड़, एक बोतल शराब (सीडू) और एक नारियल देते हैं। चिथोड़ा विवाह प्रथा में कोरकू जाति के लड़के का पिता लड़की के पिता को दहेज अर्थात गोनोम भी देता है।
टिप्पणी- कोरकू जनजाति में विवाह के समय कोरकू पुरोहित (भोमका) मुठवा देव की पूजा करवाता है।
(a) गोंड
(b) भील
(c) कीकर
(d) अंगा
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश की दूसरी बड़ी जनजाति गोंड है। प्रोटो ऑस्ट्रेलायड प्रजाति समूह से संबंधित गोंड जनजाति का निवास मुख्यत: विंध्य और सतपुड़ा के पर्वतीय क्षेत्रों में है। यह जनजाति पहाड़ी क्षेत्रों में निवास करती है, इसलिए इसे गोंड कहा गया है।
(a) मैयारी
(b) रोकरी
(c) मैक्स
(d) रासा
व्याख्या: (a) कोरबा मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ राज्य की जनजाति है, जो कोल प्रजाति की जनजाति है। कोरबा जनजाति में सारे कोरबाओं के मध्य एक प्रधान होता है, जिसे मुखिया कहते हैं। कोरबा जनजाति की पंचायत को मैयारी कहते हैं।
(a) किलार-मुठवा
(b) खेड़ा देव
(c) खनेरा देव
(d) सिंदरा देव
व्याख्या: (a) किलार मुठवा देव का चबूतरा गांव के मध्य में ग्राम देवता के रूप में होता है। इस चबूतरे पर कुछ पत्थरों का संग्रह होता है। इनका पूजन करने से गांव के घेरे में कोई विपत्ति नहीं आती क्योंकि हर प्रकार से गांव की रक्षा करते हैं। शादी-विवाह के अवसर पर किलार मुठवा देव को पूजना आवश्यक होता है, जिससे सारे काम निर्विघ्र संपन्न हो जाते हैं। हिंदुओं की पूजा में जो स्थान गणेश देव का है वहीं कोरकुओं में किलार मुठवा देव का है। पूर्वजों में सबसे बड़े देवता किलार मुठवा को सर्वोपरि मानते हैं।
टिप्पणी- कोरकू जनजाति में खेड़ा देव की स्थापना गांव की सीमा पर पूर्व या उत्तर दिशा में होती है। खेड़ा देव खेती और मवेशी के देवता है। खेड़ा देव की कृपा से इन पर कोई संकट नहीं आता है। फसल अच्छी न होने पर या मवेशियों की महामारी की स्थिति में इनकी विशेष रूप से पूजा की जाती है। खेड़ा देव के ही कारण गांव में हिंसक पशु नहीं आते और जंगल के घूमते मनुष्य अथवा मवेशी की रक्षा करते है। खेड़ा देव भूत प्रेत, दुष्टात्माओं से रक्षा करने वाला देवता है।
विशेष- कोरकू जनजाति में गांव की सीमा के बाहर पश्चिम दिशा में देव की स्थापना करते हैं। यह गांव में किसी भी तरह की बीमारी के प्रवेश को रोकते हैं। कोई व्यक्ति बीमार हो जाने पर वह इन्हीं के शरण में आकर प्रतिदिन पूजन करता है। स्वास्थ्य लाभ मिलने पर वह किसी भी दिन देव को बकरे या मुर्गे की बलि तथा एक नारियल चढ़ाता है। खनेरा देव की दशहरे पर विशेष रूप से पूजा होती है।
(a) भील
(b) बंजारा
(c) गोंड
(d) कोरकू
व्याख्या: (b) बंजारा जनजाति को कंघी का आविष्कारक कहा जाता है। मध्य प्रदेश में बंजारा को घुमंतू जनजाति के रूप में जाना जाता है, जो प्रदेश के निमाड़, मंडला, मालवा आदि जिलों में निवास करते हैं। बंजारा जनजाति के प्रमुख देवता रामकृष्ण तथा बाबा रामदेव है।
(a) कोल
(b) सहरिया
(c) बैगा
(d) भारिया
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश की तीन जनजातियों सहरिया, बैगा तथा भारीया को विशेष पिछड़ी जनजाति घोषित किया गया है। कोल जनजाति मध्य प्रदेश की विशेष पिछड़ी जनजाति नहीं है। कोल जनजाति मध्य प्रदेश की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति है, जिसकी 22 उपशाखाएं हैं। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार मध्य प्रदेश में कोल जनजाति की कुल जनसंख्या 11.67 लाख है, जो कुल जनजातीय जनसंख्या का 7.6 प्रतिशत है।
(a) रायसेन
(b) भिंड
(c) जबलपुर
(d) डिंडोरी
व्याख्या: (d) उपर्युक्त प्रश्नानुसार दिए गए विकल्पों में से सबसे कम अनुसूचित जाति जनसंख्या वाला जिला डिंडोरी है, जिसकी अनुसूचित जाति जनसंख्या दर 5.6 प्रतिशत है। मध्य प्रदेश में सबसे कम अनुसूचित जाति जनसंख्या वाला जिला झाबुआ (1.7 प्रतिशत), अलीराजपुर (3.7 प्रतिशत), मंडला (4.6 प्रतिशत) तथा बड़वानी (6.3 प्रतिशत) है। सर्वाधिक अनुसूचित जाति जनसंख्या वाला जिला इंदौर (5,45,239) है तथा सर्वाधिक अनुसूचित जाति प्रतिशत वाला जिला उज्जैन (26.37) है।
(a) सहरिया
(b) धनवार
(c) अगरिया
(d) कोल
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में तीन विशेष पिछड़ी जनजाति सहरिया है, जो मध्य प्रदेश की पांचवी सबसे बड़ी जनजाति है। सहरिया जनजाति मुख्य रूप से ग्वालियर, शिवपुरी, मुरैना, गुना आदि जिलों में निवास करती है तथा इसका संग्रहालय श्योपुर जिले में स्थित है। यह जनजाति जंगलों में निवास करती है, इसलिए इन्हें सहरिया कहा जाता है।
(a) चौत्र
(b) वैशाख
(c) ज्येष्ठ
(d) आषाढ़
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में कोरकू जनजाति के लोग ज्येष्ठ के महीने में डोडबली त्योहार मनाते हैं। यह लड़के-लड़कियों का प्रमुख त्योहार है। इस दिन लड़के जामुन की पल्लवित शाखाओं को लाकर किसी एक लड़के के शरीर पर रखकर पूरा शरीर ढक देते हैं. इसे गमनाय कहते हैं। लड़की की कमर में एक नारियल की रस्सी भी बांधी जाती है, जिसे पीछे से एक दूसरा लड़का खिंचता है। ये दोनों आगे-पीछे होकर नृत्य करते हैं और दूसरे सभी साथी गीत गाते हैं, जिसे डोडबली सिरिज कहते हैं। उस समय लड़के गांव के प्रत्येक घर जाते हैं जहां पर उनके सिर पर एक लोटा पानी डालते हैं और अनाज तथा रूपए-पैसे मांगते हैं। लड़कियों का एक अलग दल होता है। एक लड़की के सिर पर तवानुमा बांस की चिप्पियों से बनी एक खिड़ी रहती है। उस खिड़ी में थोड़ा-सा गोबर रहता है। यह लड़कियों का दल भी गांव में प्रत्येक घर जाकर नृत्य गान करता है, बदले में लोग अनाज और रूपया-पैसा देते हैं। दूसरे दिन एकत्रित रूपयों-पैसों से आवश्यक खाद्य सामग्री खरीदकर गांव की अमराई (आम का बगीचा या आम के वृक्ष के नीचे) में भोजन बनाकर खाते हैं।
(a) मोवासी
(b) बावरिया
(c) रुमा
(d) बंदोरिया
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश में होशंगाबाद जिले के पंचमढ़ी क्षेत्र में रहने वाले कोरकू जनजाति के लोग बंदोरिया कहलाते हैं। कोरकू जनजाति मध्य प्रदेश की आदिम जनजाति है, जो सतपुड़ा पर्वत क्षेत्रों में निवास करती है। यह मध्य प्रदेश के होशंगाबाद, बैतूल, छिंदवाड़ा, सिवनी जिलों के अनेक गांव में निवास करती है। बोवई, दुलारया, मोतासी, बवारी, रुमा, बोडोया, नहाला, पठारिया आदि कोरकू की प्रमुख उपजातियां हैं।
(a) कोरकू भाग्या
(b) कोरकू मजदूर
(c) कोरकू भारिया
(d) कोरकू भैया
व्याख्या: (a) कोरकू जनजाति के लोग कृषि मजदूरी करके अपना उंदर-पोषण करते हैं। पहाड़ी अंचलों में रहने वाले कोरकू वन विभाग में लकड़ियां ढोते हैं तथा वन विभाग के ही जंगलों में जाकर लकड़ियां काटने का कार्य भी करते हैं, कुछ लोग जंगलों में लकड़ियां, गोंद, शहद, चिरोंजी, महुवा आदि एकत्रित कर शहरों और गांवों में बेचने का कार्य भी करते हैं। बेकारी के समय में ये लोग गांव से शहरों में काम करने आ जाते हैं और अथक परिश्रम कर धनोपार्जन करते हैं।
टिप्पणी: कोरकू मुख्य रूप से खेती पर निर्भर रहते हैं। अधिकांश कोरकू बड़े किसानों के खेतों में सालाना के हिसाब से काम करते है। खेतों में काम करने वाले कोरकू भाग्या कहलाते हैं। स्वयं के पास खेती नाममात्र की होती है, इसलिए कोरकू पुरुष और स्त्रियों को अन्यत्र मेहनत मजदूरी करने के लिए मजबूर होना पड़ता हैं। परंपरागत रूप से कोरकू जंगल काटकर खेती करने वाली जाति है, इस प्रथा को बदलवा प्रथा कहते हैं।
(a) रीवा
(b) सीधी
(c) बालाघाट
(d) जबलपुर
व्याख्या: (c) ब्रिटिश कालीन इतिहासकार डॉ. आर. व्ही. रसेल एवं रायबहादुर हीरालाल के अनुसार हल्बा जनजाति का मूल स्थान व उत्पत्ति तत्कालीन बस्तर राज्य, रायपुर जिले का दक्षिणी भाग, उड़ीसा राज्य का महानदी तटवर्तीय इलाके रहे हैं। 11 वीं सदी से 18 सदी तक इस जनजाति ने टोलियों में धीरे-धीरे स्थानांतरण शुरू कर समीप के जिलों दुर्ग, राजनंदगांव, बालाघाट, भंडारा, छिंदवाड़ा आदि में बस गये। वर्तमान में मध्य प्रदेश में प्रमुख रूप से बालाघाट तथा छिंदवाड़ा जिले में हल्बा जनजाति का निवास है।
(a) डोडबली
(b) पोला
(c) देव दशहरा
(d) जिरोती
व्याख्या: (d) श्रावण मास की हरियाली अमावस्या को कोरकू जिरोती का त्यौहार मनाते हैं। जिरोती के दिन पकवान बनाते हैं और परिवारों के सभी लोग मिलकर खाते हैं। दूसरे दिन पड़वा की शाम को कोरकुओं का प्रसिद्ध डंडा नाच होता है। डंडा नाच में नवयुवक और वृद्ध सभी बड़े उत्साह से भाग लेते हैं। प्राय: कोरकू लोगों में कहीं-कहीं जवार बोने की प्रथा भी है। जिरोती पड़वा के दिन ही डंडे लड़ाते हुए जवारों का विसर्जन करने नदी तट पर जाते हैं और जवारों को नदी में विसर्जित कर देते हैं। नदी तट से ज्वारे लाकर परिवार में एवं अपने इष्ट मित्रों के देकर गले मिलते हैं।
(a) दीपावली
(b) आख तीज
(c) गुड़ी पड़वा
(d) पोला
व्याख्या: (d) कोरकू भाद्रपद कृष्णपक्ष में अमावस्या पड़वा को पोला मनाते हैं। यह कोरकुओं के लिए बड़े त्यौहार का दिन है। इस दिन बैल पूजन होता है। कोरकू लोग पौ फटते ही बैलो को नदी पर ले जाते हैं। उन्हें नहलाकर उनके बदन पर विभिन्न रंगों के हाथ या छपके अथवा दूसरे चिंह बनाकर सजाते हैं। सींगो पर मोरपंख और शेष भाग में रंग-बिरंगा कागज चिपका कर, गले में घूंघर माला पहनाते हैं। उनकी पीठ पर नया झूला वस्त्र भी पहनाते है। इस दिन बैलों को चावल और मूंग से बनी हुई खिचड़ी जिसमें गुड़ और घी मिला रहता है, खिलाते हैं। स्वयं भी मीठा पकवान बनाकर खाते हैं। पोला की अमावस्या और पड़वा के दिन बैलों के कंधे पर कोई बोझ या हल वगैरह नहीं रखते हैं, उन्हें पूरा आराम दिया जाता है।
टिप्पणी: देव दशहरा - यह कोरकुओं द्वारा कुंआर माह में मनाया जाने वाला उनके देवी-देवताओं से संबंधित त्यौहार है। कुंआर की पड़वा से नवमी तक प्रतिदिन रात्रि में देव के चबूतरे पर कोरकू लोग एकत्रित होकर ढोलक, टिमकी, थाली और झांझ बजाते हुए देवी गीत गाते हैं। पड़ियार नृत्य करता है। नवरात्रि में पड़ियार और भोमका का विशेष महत्व होता है। पड़ियार बैठक करता हैं तथा पड़ियार का सहायक रजाल्या होता है। देव दशहरा के दिनों में लोग मन्नते पूरी होने पर प्रसाद और बलि भी देवों को चढ़ाते हैं। दसवें दिन अर्थात दशहरे के दिन शाम को देव के चबूतरे पर नृत्य गान होता है, जिसे धाम कहते हैं।
विशेष: कोरकू कार्तिक माह की अमावस्या पड़वा को दीपावली का त्यौहार मनाते हैं। अमावस्या के दिन कोरकू अपने बैलों को स्नान कराकर घर ले आते हैं। इसके अतिरिक्त दिन में कोई और दूसरा कार्य नहीं करते हैं। रात्रि में कोरकुओं के ग्वाल जिन्हें ठाठ्या कहते हैं। ये लोग रात्रि भर भूगडू (बांसुरी जैसा लगभग 4 फीट लंबा फूंककर बजाये जाने वाला वाद्य) पर विभिन्न लोक धुनें बजाकर नृत्य करते हैं।
(a) पड़ियार
(b) भोमका
(c) पटेल
(d) चौधरी
व्याख्या: (a) पड़ियार कोरकुओं का पूज्य और अतिविशष्ट व्यक्ति है। पड़ियार का समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी ऐसी धारणा है कि पड़ियार के शरीर में में देवी-देवताओं का वास या अंश रहता है, इसलिए कोरकू समाज देव- दशहरा पर इनकी पूजा करते हैं। कोरकुओं के मतानुसार पड़ियार जादू-टोना, मंत्र-तंत्र एवं झाड़-फूंक में सिद्धहस्त होता है। ज्यादातर लोग पड़ियार के द्वारा बतलाये गये उपायों से ठीक भी हो जाते हैं। इसलिए कोरकू पड़ियार के प्रति अपनी अटूट व असीम श्रद्धा रखते हैं। बीमारी या बाहरी बाधाओं से मुक्ति मिलने पर पड़ियार देवी-देवताओं को चढ़ाने के लिए शराब और बकरे की बलि तथा सामर्थ्यानुसार लोगों में प्रसाद बांटने के लिये कहता है। स्वयं के लिये एक चिलम गांजा और एक बोतल सीडू मांगता हैं। लोगों के इच्छित कार्य सफल होने पर वे पड़ियार के आदेशानुसार सभी आज्ञाओं का पालन करते हैं और उसकी सभी मांगें अपनी सुविधानुसार व समायानुसार पूरी करते हैं।
(a) पटेल
(b) चौधरी
(c) भोमका
(d) माजन
व्याख्या: (c) कोरकू समाज में भोमका का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। भोमका जाति पुरोहित होता है। शादी-विवाह के अवसर पर किए जाने वाले सभी मांगलिक कार्य इसके ही आदेशानुसार होते हैं। देव पूजन, मंडप-प्रतिष्ठा और लग्न तथा विवाह से संबंधित अनेक कार्य भोमका ही करता है। यदि किसी कारणवश कोरकुओं को भोमका नहीं मिलता है तो विवाह संबंधी सभी कार्य कोरकू पटेल अथवा पड़ियार के निर्देशानुसार ही होते हैं। कभी शादी-विवाह के अवसर पर दहेज (गोनोम) के लेन-देन में झगड़ा या किसी तरह का विविद हो जाये तो फोमका, पड़ियार और कोरकू पटेल इस समस्या को सुलझाने में मदद करते हैं।
(a) माजन
(b) मुकरी
(c) चौधरी
(d) पटेल
व्याख्या: (d) कोरकू समाज की जातीय पंचायत होती है। परंपरागत रूप से पंचायत का गठन होता है। पंचायत में कोरकू समाज के पांच प्रतिष्ठित व्यक्ति पंच होते हैं। प्रत्येक पंचों के कार्यानुसार पद निर्धारित है-
पटेल-पटेल का पद परंपरागत होता है। पटेल की मुख्य कार्य पंचों से सलाह-मशविरा कर निर्णय करना होता है। पटेल का निर्णय अंतिम होता है। पंचायत बुलाना पटेल की मर्जी पर होता है। पटेल स्वयं चाहे तो पद छोड़ सकता है या पूरा समाज मिलकर पटेल बदल सकता है। होली पर चढ़ाये गये नारियल को नये पटेल या अन्य पदाधिकारी को दिया जाता है तब से वह उस पद का अधिकारी हो जाता है। समाज से प्राप्त धनराशि पटेल के पास जमा रहती है। कम घर वाला ढाना किसी अन्य के साथ पंचायत में मिल जाते है अपने सारे झगड़े उसी पंचायत में निपटाते है।
माजन- पटेल के बाद में माजन का महत्वपूर्ण पद होता है। माजन पटेल द्वारा दिये गये निर्णयों को स्पष्ट रूप से समझता है। विभिन्न पक्षों द्वारा उठायी गयी शंकाओं का समाधान माजन ही करता है माजन का पद भी परंपरागत है। चौधरी- कोरकू समाज में चौधरी की अहम भूमिका होती है। पंचायत भरने की सूचना देने का काम चौधरी ही करता है। शादी-ब्याह, मंगनी आदि में चौधरी सबको बुलावा देता है।
घेट्या- घेट्या का प्रमुख कार्य प्रसाद बांटना है सगाई, विवाह, होली आदि पर्व-त्यौहारों पर गुड़ घेट्या ही बांटता है।
मुकरी- मुकरी का मुख्या कार्य त्यौहार पर नाचने वालों को बुलाना तथा उन्हें इकट्ठा करना है। मुकरो को पटेल आज्ञा देता है। समाज में इन पांचों के आदेश कोई नहीं टालता है।
(a) बड़वा
(b) पड़ियार
(c) गुनिया
(d) दलगा
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में निवास करने वाला बैगा समाज अंधविश्वासी है। वह जादू-टोना, झाड़-फूंक, भूत-प्रेत बाधाओं पर सहज विश्वास करता है। बैगा समाज में गुनिया / देवार/ बरुआ समाज का वैद्य होता है, जो झाड़-फूंक के अतिरिक्त जंगलों से प्राप्त होने वाली विभिन्न जड़ी-बूटियों द्वारा बैगा समाज के लोगों का इलाज करता है।
(a) ठाकुरदेव
(b) बाघेश्वर देव
(c) नागेश्वर देव
(d) भूतेश्वर देव
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में निवास करने वाले बैगा समाज में गांव का रक्षक देवता ठाकुर देव को माना जाता है। ठाकुर देव बैगा समाज का ग्राम देवता है। बैगा बाहरी बाधाओं से बचने के लिए ठाकुर देव को मानते हैं। ठाकुर देव का निवास सरई या महुआ वृक्ष में होता है। गांव में किसी भी सार्वजनिक स्थान पर सरई या महुआ वृक्ष के नीचे कुछ पत्थरों का ढेर मात्र होता है। ठाकुर देव की स्थापना झोपड़ी बनाकर भी करते हैं। ठाकुर देव किसी बरुआ के सिर पर भाव के रूप में प्रकट होते हैं। बरुआ गांव वालों की विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय बताता है। ठाकुर देव की पूजा हर तीन साल में एक बार होती है।
टिप्पणी: खैर माई ग्राम देवी है। यह भी ठाकुर देव की तरह गांव की रक्षा करने वाली देवी है। खैर माई की प्रतिष्ठा ठाकुर देव की मड़ई में की जाती है। खैर माई की पूजा तीन साल में होती है। खैर माई को महारिन देवी भी कहते हैं। खैर माई गांव को बीमारियों से बचाती हैं। गांव में बीमारी फैलने पर खैर माई को ही प्रसन्न किया जाता है। खैर माई को काली बरई (लगभग 1 वर्ष की मादा बकरी) की बली दी जाती है।
(a) बूढ़ा देव
(b) ठाकुर देव
(c) बाघेश्वर देव
(d) बंजारिन माई
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में निवास करने वाले बैगाओं द्वारा जंगलों में बेवर खेती की जाती है, इस खेती को करने से पूर्व बाघेश्वर देव की पूजा की जाती है। बैगाओं समाज के लोग बेवर खेती घने जंगलों में करते हैं, जहां सदैव शेर/बाघ का खतरा रहता है। इसलिए बाघ को देवता मानकर बैगा जनजाति के लोग बाघेश्वर देवता की पूजा करते हैं। इसके अतिरिक्त बंजारिन माई को बैगा जनजाति वन देवी के रूप में मानती है, जो बीहड़ वन में जंगली जानवरों व विभिन्न प्रकार की आपदा से उनकी रक्षा करती है।
टिप्पणी: बैगा जनजाति नाग (सांप) को नागेश्वर देवता के रूप में हर तीन वर्ष में पूजा करती है, जिसमें सुअर की बलि दी जाती है तथा नारायण देव को बैगाओं का कुल देवता माना जाता है।
विशेष: बैगा अपनी असुरक्षा की भावना से कई देवी-देवताओं की परिकल्पना कर लेते हैं। बैगा हर चीज में किसी न किसी देवता का वास मानते हैं। धरती माता, सूरज देव, बूढ़ा देव, बेहट वासी, अन्न माता, धानी देव, मारकी देव के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं।
(a) दवार
(b) समरथ
(c) मुकद्दम
(d) कोटवार
व्याख्या: (a) बैगा जनजाति में दवार को गांव का पुरोहित या पंडा माना जाता है, जो पृथ्वी माता का अनन्य भक्त होता है, बैगा समाज में धार्मिक पूजा-पाठ के कार्यों का दायित्व दवार के पास ही होता है। इसे भूमियां भी कहा जाता है।
टिप्पणी: बैगा समाज की व्यवस्था की धुरी पंचायत पर निहित होती है। गांव का प्रबंध गांव के मुखिया करते हैं तथा इनकी पंचायत में पांच पंच क्रमशः मुकद्दम, दीवान, समरथ, कोटवार और दवार होते हैं। बैगाओं के गांव में प्रशासनिक, सामाजिक, धार्मिक, सरकारी कार्यों की अगुवाई मुकद्दम अर्थात गांव का मुखिया होता है तथा दीवान मुकद्दम का सहायक होता है। समरथ गांव में सामाजिक कार्यों का निर्वहन करता है और कोटवार शासकीय सेवक होता है।
(a) भील
(b) कोल
(c) कोरकू
(d) बैगा
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश में निवास करने वाली बैगा जनजाति परंपरागत खेती में आज भी विश्वास करती है। वह बेवर खेती पहाड़ी ढलानों में खड़े वृक्षों को काटकर करती है। पहले सरकार भी बैगाओं को बेवर बनाने के लिए ढलान के टुकड़े आवंटित करती थी किंतु यह प्रथा वृक्षों के नुकसान को देखते हुए बंद कर दी गई है।
टिप्पणी: पहाड़ी, ढलानों, नदियों की तराइयों में बैगा बेवर बनाते हैं। भादौ में वह वृक्ष को नीचे से काटकर गिरा देते हैं। तब सारा क्षेत्र वृक्षों के तनों, डाली, पत्तों से पट जाता है और वैशाख के अन्त और ज्येष्ठ के प्रारंभ में कटे वृक्षों को आग लगा देते हैं। बेवर में राख ही राख दिखाई देती है। ज्येष्ठ की प्रारंभिक वर्षा से यह जमीन राख से मिलकर भुरभुरी हो जाती है। कोदों, कुटकी, माड़िया कंगनी, बाजरा, सामा, रसैनी, कुटकी, जुवार, मक्का, कांग, सिलार दालों में राहर, उड़द, दिरा, झुंजरू, बरबटी, झुरगा आदि बीजों को एक साथ मिलाकर मुट्ठी से पूरे बेवर में छिटक दिया जाता है। बेवर में बुवाई (डुभाई) स्त्रियां करती है। निंदाई व पौधे की रक्षा की जिम्मेदारी महिलाओं की होती है।
विशेष: कांदा बाड़ी भी बेवर की तरह तैयार की जाती है। कांदा बाड़ी में शकरकंद, तम्बाकू हल्दी मिर्च, भटा, मसाला, तेल के लिये अरंडी के बीच बोते हैं।
(a) कोल
(b) भील
(c) गोंड
(d) उपरोक्त सभी
व्याख्या: (d) रामायण में कोल, भील व गोंड जनजातियों का उल्लेख किया गया है।
(a) अपहरण विवाह प्रथा
(b) लमझना विवाह प्रथा
(c) चिथोड़ा विवाह प्रथा
(d) राजी बाजी विवाह प्रथा
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश के सतपुड़ा अंचल में निवास करने वाली कोरकू जनजाति में 4 विवाह प्रथाएं क्रमश: लमझना विवाह, चिथोड़ा विवाह, राजी बाजी विवाह एवं तलाक और विधवा विवाह प्रचलित है। समाज के एक अंग के रूप में कोरकू जाति का स्वरूप अधिकांश सजातीय विवाह प्रथा पर आधारित है तथा आज भी परंपरागत रूप से सजातीय विवाहों को आदर्श माना जाता है। कोरकुओं में समगोत्री विवाह निषिद्ध है। कोरकुओं में सामान्यतः माता या मामा के गोत्र को लड़की से विवाह करना मना है, इस पर कड़ा प्रतिबंध है।
(a) भील
(b) कोरकू
(c) सहरिया
(d) कोल
व्याख्या: (b) मध्य प्रदेश की कोरकू जनजाति में लमझना प्रथा का प्रचलन है। लमझना विवाह प्रथा के अंतर्गत कोरकू जनजाति में लड़की का पिता अन्यत्र गांव में जाकर लड़की के विवाह के लिए सुयोग्य वर ढूंढता है और लड़का (सुयोग्य वर) मिल जाने पर उसे अपने घर लेकर आता हैं। सुयोग्य वर अर्थात लमझना अपने होने वाले सास-ससुर की सेवा करता है तथा कृषि एवं अन्य कार्यों में सहायता प्रदान करता है। लमझना प्रथा में वर को एक वर्ष के अंदर लड़की को गर्भवती करना अनिवार्य होता है अन्यथा उसे घर से निष्कासित कर दिया जाता है तथा लड़की का पिता दूसरा लमझना (सुयोग्य वर) ढूंढ़ता है। लमझना प्रथा कोरकू पुरुषों के पुरुषत्व की परीक्षा है। यह अधिकांशतः गरीब कोरकुओं में ज्यादा प्रचलित है।
(a) 34
(b) 33
(c) 32
(d) 31
व्याख्या: (a) भगोरिया भील जनजाति का प्रणय पर्व है, जो होली के 7 दिन पूर्व मध्य प्रदेश के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित अलीराजपुर, झाबुआ जिले में प्रमुख रूप से मनाया जाता है। वर्ष 2017 में यह मध्य प्रदेश के 34 स्थानों पर मनाया गया था।
(a) भील
(b) सहरिया
(c) कोल
(d) कोरकू
व्याख्या: (d) कोरकुओं की मान्यता है कि मृतक थोड़े दिन बाद देव पितर में शामिल हो जाता है। इसलिए पूर्वजों को देव पितर में शामिल करने के लिए समर्थ कोरकू सिडोल पर्व मनाते हैं। सिडोली पर्व में परगना के सभी कोरकुओं को निमंत्रण भेजा जाता है, जिसमें लगभग सभी आबाल वृद्ध कोरकू इकट्ठा होते है। परंपरा के अनुसार कोरकू आपस में गालियां देते हैं, कहा-सुनी होती है, कभी-कभी बात-बात में हत्या तक हो जाती है। सिडोली में की गई हत्या की सुनवाई किसी जगह नहीं होती। सिडोली में सम्मिलित स्त्री-पुरुष सीडू का सेवन करते हैं।
टिप्पणी: पूर्वजों की स्मृति में कोरकू जनजाति की वृद्ध महिलाएं मृत्यु गीत गाती हैं। फुलजगनी या दशा के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं वहीं गीत सिडोली में गाये जाते हैं। सिडोली दस-पन्द्रह साल में किसी संपन्न और विख्यात कोरकू की स्मृति में मनाया जाता है। पटेल, चौधरी, सरपंच, पड़िया या भोमका के मर जाने पर सुविधानुसार सिडोली अवश्य मनाई जाती है। सिडोली में पूर्वजों की पूजा की जाती है। कलात्मक मंडो बनाकर उसे स्थापित किया जाता है।
(a) गोंड और भारिया
(b) सहरिया
(c) खासी और गारो
(d) कोरकू
व्याख्या: (a) छिंदवाड़ा जिला मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भाग में स्थित है तथा सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के अंतर्गत वनों से आच्छादित है। छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट में प्रमुख रूप से भारिया जनजाति पायी जाती है। इसके अतिरिक्त गोंड जनजाति भी पातालकोट व उसकी सीमावर्ती क्षेत्रों में निवास करती है।
(a) कोल
(b) भारिया
(c) सहरिया
(d) कोरकू
व्याख्या: (b) भरनोटी या भरियाटी भारिया जनजाति की मूल बोली है। भरियाटी द्रविड़ियन मुंडा परिवार की बोली है, इसलिए गोंडी से मिलती-जुलती है। भरियादी कोरकू, गोंडो, छत्तीसगढ़ी और बुंदेली का मिश्रित रूप है। इसी मिश्रित बोली का प्रयोग भारिया अपने घरों में आपसी बातचीत में करते हैं। किंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रत्येक भारिया हिंदी समझ सकता है और सामान्यतः बोलने में हिंदी का प्रयोग करता है। भारिया गीतों, कथाओं में कहीं-कहीं भरियाटी बोली का शुद्ध रूप देखने को मिलता है।
(a) कोल
(b) भारिया
(c) सहरिया
(d) हल्बा
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश की कोल जनजाति अपने पूर्वजों की स्मृति में घमसान देव की पूजा करती है। घासी घमसान कोलों के पूर्वज हैं। उनकी स्मृति में कोलों के प्रत्येक गांव में चौरा बनाकर खासी घमसान की स्थापना कर प्रत्येक वर्ष में एक बार उनकी पूजा की जाती है। घमसान देव बीमारियों से कोलों के गांव की रक्षा करते हैं तथा कोल जनजाति पुत्र की कामना, मंगल कामना आदि के लिए घमसान देव की पूजा नवरात्रि पर्व के अवसर पर करते हैं।
टिप्पणी: कोल जनजाति में ठाकुर देव की पूजा ग्राम देवता तथा बड़का देव की पूजा महादेव शिवशंकर के रूप में की जाती है। इसके अतिरिक्त अहीरा बाबा संयासी देव, वनसती देवी (वन देवी), अंजनी देवी, आसमानी देवी, भानमती, विंध्यावासिनी, बूढीमाई, धरती माई शिवरी माई, शीतला माई, बूढ़ी माई, कलशहाइ माई, चौरंगा माई, पलटिहा माई, घूकी माई, हुलकीमाई, बाघ देव, बैरम बाबा, भैंसासुर, हरदौल, महावीर, मन्सा देव, नंगा बाबा, धरती माता, सूर्य नारायण, अग्रिदेव, गाय, दुरूपति देवी और नेउराम देवता की आराधना एवं स्मरण कोल जनजाति के लोग करते हैं।
(a) आदमियों की जमात
(b) आदिवासियों की जमात
(c) काम की जमात
(d) कर्म की प्रधानता
व्याख्या: (a) कोरकू जनजाति आस्ट्रिक वंश से संबंधित है। कोर या कोरो अर्थात आदमी और कू लगाने से यह शब्द बहुवचन हो जाता है। कोरकू का शाब्दिक अर्थ है आदमियों की जमात। मध्य प्रदेश में कोरकू जनजाति सतपुड़ा के वनीय अंचलों में छिंदवाड़ा, बैतूल जिले की भैंसदेही और चिचोली तहसील में होशंगाबाद व हरदा जिले के टिमरनी और खिड़किया तहसील में, पूर्व निमाड़ जिला खंडवा की हरसूद और बुराहनपुर जिले के गांव में निवास करने वाली प्रमुख जनजाति है।
टिप्पणी: कोरकू जनजाति मुख्यतः 4 समूह क्रमशः रुमा, पोतड़या, ढुलरिया और बोवई या बोन्डई के रूप में पायी जाती है।
(a) गोंड
(b) भील
(c) सहरिया
(d) कोरकू
व्याख्या: (d) मृत्यु भोज के दूसरे दिन मृतक की समाधि पर एक लकड़ी का स्तंभ लगाने की प्रथा कोरकुओं में है, जिसे मंडा या मंडो कहते हैं। मंडो सागौन की लकड़ी या पत्थर से बनाया जाता है। मृतक स्तंभ कोरकू जाति के सुतार बनाते हैं। काष्ठ स्तंभ पर उन सभी वस्तुओं को अंकित किया जाता है, जो मृतक को प्रिय थी। मंडो समाधि स्थल के अलावा गांव के किसी ओटले पर छोटी मंदरी बनाकर या पेड़ के नीचे रखने का रिवाज है। मंडो पर नीचे एक मनुष्य आकृति बनाई जाती हैं, जिसके हाथ खुले दिखाये जाते हैं। दूसरी आकृति - घुड़सवार की होती है। इस आकृति के ऊपर चंद्रमा और सूर्य की आकृतियां बनाई जाती हैं। कोरकू मान्यता है कि मृतक चंद्र लोक होते हुए सूर्य अर्थात स्वर्ग लोग में पहुंचता है। मंडो को चारों और से बेलबूटों, पशु-पक्षियों से सजाया जाता है। मंडो कोरकू कला का श्रेष्ठ नमूना है। मंडो गाड़ने की प्रथा होशंगाबाद जिले के पचमढ़ी क्षेत्र के कोरकुओं में ही अधिक प्रचलित है। बैतूल और पूर्वी निमाड़ जिला खंडवा के क्षेत्र में रहने वाले कोरकू प्रायः मृतक की स्मृति में मुठवा देव के चबूतरे पर एक पत्थर रख देते हैं।
टिप्पणी: कोरकुओं में मृत्यु-गीत गाने की प्रथा है। कोरकू बूढ़ी महिलाएं मृतक के तीसरे दिन या दसवें दिन मृत्यु गीत गाती हैं। मृत्यु-गीतों को गाथा गीत, फुलजगनी या सिडोली गीत कहते हैं। गाथ गीतों में मृतक द्वारा किये गये कार्यों का बखान और उसकी प्रिय वस्तुओं को स्मृति चिंह के रूप में गाया जाता है।
(a) अनुसूची 5
(b) अनुसूची 6
(c) अनुसूची 11
(d) इनमें से कोई नहीं
व्याख्या: (a) संविधान की पांचवी अनुसूची में मध्य प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों को कवर किया गया था। संविधान की 5वीं अनुसूची में अनुसूचित क्षेत्र और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के संबंध में कुछ उपबंध किए गए हैं। इस अनुसूची के अधीन जनजातीय भूमि का खनन के लिए निजी पक्षकारों को अंतरण, अकृत और शून्य घोषित किया जा सकता है। इस अनुसूची के अनुच्छेद- 6 (1) के अनुसार अनुसूचित क्षेत्रों की घोषणा राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा इस सूची के अनुच्छेद-6 (2) के अनुसार, राष्ट्रपति संबंधित राज्य (मध्य प्रदेश) के राज्यपाल के परामर्श से उस राज्य (मध्य प्रदेश) के अनुसूचित क्षेत्र में वृद्धि या पुनर्परिभाषित कर सकता है।
(a) झाबुआ
(b) बड़वानी
(c) अलीराजपुर
(d) डिंडोरी
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले में जनजातीय जनसंख्या का सर्वाधिक प्रतिशत (89 प्रतिशत) है।
(a) शहडोल
(b) मंडला
(c) बालाघाट
(d) झाबुआ
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश में सर्वाधिक जनजाति जनसंख्या वाला जिला धार है, जिसकी कुल जनसंख्या 12,22814 है किंतु में प्रदान किये गये समस्त विकल्पों में सर्वाधिक जनजाति जनसंख्या वाला जिला झाबुआ है, जहां की कुल जनसंख्या 8,91,818 है।
(a) 1/2
(b) 1/3
(c) 1/5
(d) 1/4
व्याख्या: (c) वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या 7,26,26,809 है, जिसमें अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 1,53,16,784 है। इस प्रकार मध्य प्रदेश के लगभग 1/5 लोगों को आधिकारिक तौर पर अनुसूचित जनजातियों के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। यह मध्य प्रदेश की कुल जनसंख्या का 21.09 प्रतिशत तथा देश की कुल जनसंख्या का 14.70 प्रतिशत है। भारत में वर्ष 2011 की जनगणना के असार अनुसूचित जनजातियों की संख्या 10,42,81,034 है, जो देश की कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है।
(a) छिंदवाड़ा
(b) इंदौर
(c) भोपाल
(d) रतलाम
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में जनजातीय संग्रहालय मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की श्यामला हिल्स पहाड़ी में स्थित है, जिसका उद्घाटन 6 जून, 2013 को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने किया था। इसके अतिरिक्त मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट में मध्य प्रदेश का सबसे पहला आदिवासी संग्रहालय 20 अप्रैल, 1954 को स्थापित किया गया था, जिसे वर्ष 1975 में राज्य संग्रहालय का दर्जा प्रदान किया गया है।
टिप्पणी: छिंदवाड़ा जिले के पातालकोट में स्थित संग्रहालय को श्री बादल भोई आदिवासी संग्रहालय नाम प्रदान किया गया है, जिसमें जनजातियों की सांस्कृतिक धरोहर कला से देवी-देवताओं की मूर्तियां आदि संरक्षित की गई है। तथा यह संग्रहालय 15 अगस्त, 2003 से पर्यटकों के लिए खोला गया हैं।
(a) इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय, भोपाल
(b) केंद्रीय पुरातात्विक संग्रहालय, इंदौर
(c) मध्य प्रदेश जनजाति संग्रहालय, भोपाल
(d) श्री बादल भोई शासकीय आदिवासी संग्रहालय, छिंदवाड़ा
व्याख्या: (a) इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय भोपाल में स्थित है, जिसकी स्थापना 21 मार्च, 1977 को की गई थी तथा वर्ष 1985 में इसे राष्ट्रीय मानव संग्रहालय एवं वर्ष 1993 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मानव संग्रहालय नाम प्रदान किया गया है। यह संग्रहालय मानव सभ्यता के विकास की कहानी को प्रदर्शित करने वाला भारत व मध्य प्रदेश का सबसे बड़ा संग्रहालय है। इस संग्रहालय में जनजातीय विकास एवं उनकी लोक कलाओं तथा भवनों की विशेष प्रदर्शनियां स्थापित की गई है, जिनमें प्रमुख रूप से आदिवासी प्रजातियों (टोडा, बाराली, बोडो, कछरी, कोटा, सोवरा, गदेव, कुटियाक, अगरिया, राजवद, करवी, भील) की झोपड़ियां बस्तर का रथ, मुड़िया लोगों का घोटुल 110 फीट लकड़ी की बनी नाव, शैलचित्र आदि प्रतर्शित किये गये हैं।
(a) गोंड
(b) कोरकू
(c) भील
(d) कोल
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में भील एवं भिलाला जनजातियों की जनसंख्या सर्वाधिक (लगभग 59.93 लाख) है, जो राज्य की कुल अनुसूचित जनजाति जनसंख्या का 39.1 प्रतिशत है। मध्य प्रदेश की तीन सबसे बड़ी जनजातियां क्रमश: भील, गोंड और कोल है जबकि मध्य प्रदेश की सबसे छोटी जनजाति कमार (सीधी) है।
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