मध्य प्रदेश में स्थापत्य कला MCQ
(a) मौर्य काल
(b) परमार काल
(c) तोमर काल
(d) चंदेल काल
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश में कला-स्थापत्य का क्रमिक इतिहास वास्तविक रूप में मौर्य काल से प्रारंभ होता है। नन्द-मौर्यकाल के पूर्व कलाकृतियों के निर्माण में लकड़ी, ईंट व मिट्टी का प्रयोग किया जाता था। इस समय से ईंट और काष्ठ के स्थान पर पत्थरों का प्रयोग किया जाने लगा। मध्य प्रदेश के उज्जैन और बेसनगर उत्खनन से कुछ ऐसे दुर्गों के अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो यह प्रमाणित करते हैं कि इनका निर्माण राजकीय दृष्टि से किया गया था। उज्जैन गढ़कालिका क्षेत्र से प्राप्त पुरावशेष राजा के राजप्रासाद रहे होंगे, जिसमें लकड़ी का प्रयोग किया गया था, जो अब नष्ट हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त विदिशा, नागदा, आवरा, त्रिपुरी, तुमैन, जडेरुआ, कुतवार, सोरों और मेहरा बुजुर्ग (भिंड) इत्यादि स्थलों के उत्खनन से मौर्यकालीन स्थापत्य के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
टिप्पणी: त्रिपुरी के उत्खनन से भी मौर्यकालीन भवन निर्माण की जानकारी प्राप्त हुई है। यहां घरों की दीवारें मिट्टी व पकी ईंटों से बनाई गई थीं और उनकी छतें छप्पर व खपरेल की होती थीं। फर्श पर चूने का प्लास्टर किया जाता था। मंडल-कूपों का निर्माण भी पकी मिट्टी के वृत्ताकार छल्लों अथवा ईंटों से होता था। इन पुरावशेषों से स्पष्ट होता है कि भवन नियमित रूप से बनाये जाते थे और उनके निर्माण में दिशा इत्यादि तत्वों का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। इससे तत्कालीन स्थापत्य के विकसित स्वरूप का बोध होता है।
(a) सम्राट अशोक
(b) अशोक की पत्नी श्रीदेवी
(c) पुष्यमित्र शुंग
(d) अशोक की बेटी संघमित्रा
व्याख्या: (b) उज्जैन महात्मा बुद्ध के समय से ही बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। बुद्धवंश पालि से ज्ञात होता है कि बुद्ध के महापरिनिर्वाण पश्चात बंटवारे में चीवर एवं आसंदी अवंति प्रदेश को प्राप्त हुए थे, जिस पर श्रद्धालुओं ने कांचनवन में एक स्तूप का निर्माण किया था। यद्यपि यह प्राक् मौर्यकालीन है लेकिन मौर्यकाल में राजकुमार अशोक की पत्नी देवी ने इसका बहुविस्तार किया। देवी वैश्य वर्ग की होने के कारण आज इस स्तूप को स्थानीय लोग वैश्य टेकरी (कानीपुरा) के नाम से जानते हैं। एम.जी. गद्रे महोदय ने वर्ष 1938-39 में इस वैश्य टेकरी स्तूप का उत्खनन कराया था। इससे एक विशाल स्तूप का अवशेष प्रकाश में आया। स्तूप घेरा में 350 फीट और 100 फीट ऊंचा है। अब तक प्राप्त विशालतम स्तूपों में से एक है। यहीं से प्राप्त एक मृणमुद्रा के अग्रभाग पर सांची के सादृश्य तोरण द्वारा निर्मित है और पृष्ठ भाग पर उज्जयिनी चिंह। यह अश्वनी शोध संस्थान महिदपुर में संग्रहित है। जातकों में 498 चित्त - सम्भूत जातक कथा उज्जयिनी से संबंधित है। इससे स्पष्ट होता है कि उज्जयिनी के महास्तूप में भी जातक कथा का उत्कीर्णांकन रहा होगा। इसमें मेधी, हर्मिका तथा त्रियछत्रावली भी निर्मित होने का अनुमान है। स्तूप की एक भिन्न विशेषता यह है कि स्तूप के चारों ओर अनोतत्व सरोवर है, जिसमें स्नान कर उपासक उपासिकाएं उपसम्पदा ग्रहण करते थे। सामने ही दो छोटे-छोटे स्तूप है, जिनको विद्वान महेंद्र एवं संघमित्रा की स्मृति स्वरूप व्यवसायिक तुलावटी तथा कंकणी संघ द्वारा निर्मित किए गए, कहे जाते हैं।
(a) भोपाल
(b) शहडोल
(c) उज्जैन
(d) रायसेन
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित सांची की पहाड़ी पर तीसरी शताब्दी ई. पू. से लेकर नौंवी शताब्दी ई.पू. तक अनेक स्तूपों का निर्माण कार्य होता रहा। बौद्ध धर्म के केंद्र के रूप में सांची का स्थान मौर्यकाल से दिखाई देता है। यहां प्रमुख रूप से तीन स्तूप है और छोटे-छोटे अन्य स्तूप भी है। सांची को तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में वेदिसगिरि या चेतियगिरि तथा दूसरी पहली शताब्दी ईसा पूर्व में काकणाव या काकणाय कहते थे। कालांतर में इसका नाम काकनादबोट, श्री महाविहार, बोटश्रीपर्वत भी रहा है।
सांची स्थल के पुनर्खोज का श्रेय बंगाल कैवेलरी के जनरल हेनरी टेलर को दिया जाता है। सर जॉन मार्शल ने सर्वप्रथम वर्ष 1912-1920 के बीच में सांची स्तूपों का पुनरुद्धार करवाया। इनमें सबसे महत्वपूर्ण स्तूप क्र. 1 है, जिसे बौद्ध महास्तूप के नाम से जाना जाता है, जो पूर्णरूप से दिखाई देता है। सम्राट अशोक ने तीसरी शताब्दी ई. पू. में सांची में बौद्ध महास्तूप का निर्माण करवाया था, जो मूलरूप में ईंटों का बना हुआ था। इसमें महास्थविर महामोद्गल्यायन एवं सारिपुत्र की अस्थियां रखी प्राप्त हुई हैं। कालांतर में इसे प्रस्तर खंडों से आच्छादित किया गया। स्तूप का व्यास 120 फीट एवं ऊंचाई 54 फीट है। इसका अंड मेधी पर बना है। इसको त्रिमेधी स्तूप कहा जाता है क्योंकि इसमें तीन मेधियां हैं - एक नीचे, एक मध्य में तथा एक ऊपर। हर्मिका के पास, नीचे की मेधी से मध्य की मेधी तक पहुंचने के लिए सीढ़ी बनी हुई है। इसका अंड मिट्टी तथा गिट्टी से तैयार कर ईंटों से ढका गया है। अंड के ऊपर बने हर्मिका के बीच एक यष्टि है, जिसमें तीन छत्रावली है, जो बुद्धम, धम्मं, संघम की प्रतीक है। अंड के चारों ओर महावेदिका से घिरा हुआ प्रदक्षिणापथ है। वेदिका 9 फीट ऊंचे स्तंभों से निर्मित है, जिसमें 2 फीट चौड़े उष्णीष हैं। प्रदक्षिणापथ में जाने के लिए 34 फीट ऊंचे 4 तोरण द्वार निर्मित हैं। तोरण द्वार सर्वाधिक कलाकृतियों से उत्कीर्ण हैं, जिसमें अनेक बौद्ध जातक कथाओं, पशु-पक्षियों, घटनाओं, प्रतीकों, सामाजिक जीवन के विविध पक्षों का उत्कीर्णांकन किया गया है। सबसे ऊपर त्रिरत्न व धर्मचक्र बना है। चौकोर खम्भों के शीर्ष पर पशु आकृतियां निर्मित हैं। नीचे वाली सूची के भार को रोकने के लिए दो खम्भों पर यक्षणियां निर्मित की गई हैं। पास ही स्तूप क्र. 2 एवं 3 भी है। इसके अतिरिक्त छोटे-छोटे मनोती स्तूप भी निर्मित है।
(a) 1862 ई.
(b) 1820 ई.
(c) 1853 ई.
(d) 1872 ई.
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में हलाली नदी के किनारे सतधारा बौद्ध स्तूप की खोज मेजर कनिंघम ने 1853 ई. में की थी। यहां अभी तक 40 स्तूप और 17 विहार प्राप्त हुए हैं। इनमें से स्तूप क्र. 1, 2, 3 एवं 8 महत्वपूर्ण हैं। स्तूप क्र. 1 ईंटों से निर्मित विशाल स्तूप था, जो मौर्यकालीन था। इसका व्यास 34 मीटर तथा वर्तमान ऊंचाई 12.55 मीटर है। इसमें सांची की भांती मेधी, वेदिका, हर्मिका आदि के प्रमाण मिले हैं। पाषाण एवं मिट्टी का प्रयोग भी किया गया है। स्तूप क्र. 2 के उत्खनन से कनिंघम महोदय को सारिपुत्र और महामोद्गल्यायन के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं, जो सांची के स्तूप क्र. 3 से भी प्राप्त हुए हैं। शेष स्तूप 12 से 20 फीट व्यास के हैं। सामान्य रूप से पत्थरों से निर्मित ये सभी स्तूप भग्नप्रायः हैं।
(a) खजुराहो
(b) विदिशा
(c) रायसेन
(d) गोहद
व्याख्या: (b) विदिशा से लगभग 12 किमी. दूरी पर अंधेर नामक स्थान से तीन स्तूपों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। स्तूप क्र. एक 4 फीट ऊंची जगती पर निर्मित 35.2 फीट व्यास का है। स्तूप एक विशाल चहार दीवारों से घिरा हुआ था। उष्णीषयुक्त मेथी है। प्रवेश स्तंभ दोनों तरफ से उत्कीर्ण है। इनमें सिंहशीर्ष युक्त चक्र स्तंभ, हस्ति, छत्रयुक्त बोधिवृक्ष के अंकन प्रमुख हैं। स्तूप क्र. 2 के उत्खनन से कनिंघम महोदय को गोतिपुत्र के शिष्य वाधिपुत्र, कौन्डिन्य गौत्र के गोत्रिपुत्र काकनाव प्रभासनस एवं गोतिपुत्र के शिष्य मोग्गलिपुत्र के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं। स्तूप क्र. 3 से कनिंघम को हारितिपुतस के अस्थि अवशेष मिले हैं।
(a) अंधेर के स्तूप
(b) भोजपुर के स्तूप
(c) भरहुत का स्तूप
(d) सोनारी स्तूप
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में सांची से 9 किमी. दूर दक्षिण-पश्चिम में सोनारी स्तूप स्थित है। यहां पर 8 स्तूपों के अवशेष पाये गये हैं, जिसमें स्तूप क्र. 1 सबसे बड़ा है, जो कि 240 फीट वर्गाकार प्रांगण के मध्य स्थित है। 48 फीट व्यास वाला यह स्तूप 4 फीट ऊंची जगती की गोलाकार वेदी पर स्थित था। वेदिका श्वेत बलुए पत्थर से निर्मित थी। कनिंघम महोदय को स्तूप के उत्खनन से अस्थि-मंजूषा में संरक्षित अस्थि का छोटा-सा भाग मिला, जो संभवतः बुद्ध का दांत था।
टिप्पणी: रायसेन जिले में विदिशा से लगभग 10 किमी. दूर भोजपुर है, जहां पर 37 स्तूपों के अवशेष पाये गये। इसी प्रकार रायसेन जिले की खरवई से दो स्तूप एवं विहार के अवशेष पाये गये हैं।
(a) 1873
(b) 1859 ई.
(c) 1867 ई.
(d) 1882 ई.
व्याख्या: (a) भरहुत का स्तूप- यह स्तूप मध्य प्रदेश में सतना के निकट स्थित नागौद रियासत में था। इसकी खोज सर्वप्रथम कनिंघम ने 1873 ई. में की थी। जिस समय कनिंघम ने इसे देखा था, उस समय इसकी गोलाकार वेदिका का तथा एक तोरण द्वार का कुछ ही भाग शेष था। यत्र-तत्र बिखरे हुए स्तूप खंडों को एकत्र कर उन्होंने कलकत्ता, काशी, इलाहाबाद, नई दिल्ली, बम्बई के संग्रहालयों में संग्रहित कर दिये।
भरहुत के स्तूप का अंड ईंटों का और तोरण तथा वेदिका चुना पत्थर की बनी थी। वेदिका में कुल 80 स्तंभ थे जिनके मध्य में चक्र तथा ऊपर नीचे अर्द्धचक्र बने थे। इन चक्रों तथा अर्द्धचक्रों को विभिन्न प्रकार से फूल-पत्तों से विशेष कर कमलदलों से सजाया गया था। वेदिका स्तंभों तथा तोरणों का उत्कीर्ण शिल्प से अलंकृत किया गया था, जिनमें यक्ष-यक्षिणियां, नाग-नागिनियां, किन्नर-अप्सराएं राजा-रानी से लेकर सेवक-सेविकाएं तथा विभिन्न वर्ग के नर-नारी अंकित हैं। यक्ष-यक्षिणियों में सुपवस यखो, विरूढको खो, सुचिलोम यखो, कुपिरा (कुबेर) यखो, अजकालको यखो, सुदसना में (सुदर्शना) यखी, चूलकोका यखी, महाकोका यखी, चंदा यखी तथा सिरिमा (श्री मां) देवता मुख्य हैं। नाग-नागिनियां मानव आकृतियां हैं, केवल शीश पर सर्प-फण जोड़ दिया गया है।
भरहुत शिल्प में बुद्ध के जीवन की घटनाओं और जातक कथाओं का अंकन तो है ही, साथ ही उनमें तत्कालीन राजभवनों, मंदिरों, झोपड़ियों, वस्त्राभूषणों और अनेक बौद्ध प्रतीकों के मनोहारी अंकन पाए गए हैं। इनसे तत्कालीन समाज की बहुरंगी झांकी दिखलाई पड़ती है।
(a) भिंड
(b) विदिशा
(c) रीवा
(d) रायसेन
व्याख्या: (c) देउरकोठार रीवा जिले के त्यौंथर तहसील के अंतर्गत स्थित है जो मौर्यकाल में बौद्ध केंद्र के रूप में विकसित हुआ। प्राचीनतम बौद्ध स्तूप क्र. 1 अशोक के समय तृतीय शताब्दी ई. पू. में निर्मित हुआ आकार में यह सबसे बड़ा और सुरक्षित है। स्तूप ईट, पाषाण एवं मिट्टी से निर्मित है। इसकी ऊंचाई 11.07 मीटर है, व्यास 143 फीट है। स्तूप का प्रदक्षिणापथ पत्थर की वेदिका से घिरा हुआ था जिसमें कमल, घट पल्लव का उत्कीर्णन एवं अलंकरण का सादगीपूर्ण उत्कीर्णन है। यह प्रस्तर वेदिका की आरंभिक कला का उदाहरण सिद्ध करती है। इस वेदिका के अधिकांश भाग खंडित अवस्था में पाए गए थे। हर्मिका सोपान, मेधी की परंपरा भी दिखाई देती है। कला का प्रेरणास्रोत लोक कला प्रतीत होती है। यहां पर लगभग 50 से अधिक स्तूपों के अवशेष पाए गए हैं।
टिप्पणी: देउर कोठार स्थान, रीवा-इलाहाबाद मार्ग NH-27 पर सोहागी पहाड़ से पहले कटरा कस्बे के समीप स्थित है। यहां मौर्य कालीन मिट्टी ईट के बने 3 बड़े स्तूप और लगभग 46 पत्थरों के छोटे स्तूप बने हैं। अशोक युग के दौरान विंध्य क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ और भगवान बौद्ध के अवशेषों को वितरित कर स्तूपों का निर्माण किया गया।
(a) अयोध्या
(b) मथुरा
(c) आगरा
(d) प्रयागराज
व्याख्या: (b) तुमैन का बौद्ध स्तूप (जिला गुना) विदिशा तथा मथुरा को जोड़ने वाले व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। तुमैन की पहचान प्राचीन तुम्बवन से की गई है, जो एक समृद्धशाली एवं व्यापारिक नगर रहा है। जैन परिशिष्टपर्वन के अनुसार तुम्बवन संहित आधुनिक पूर्वी मालवा का अधिकांश भाग अवत के अंतर्गत आता था। यहां तीन मौर्यकालीन बौद्ध स्तूप प्राप्त हुए हैं। इनमें से स्तूप क्र. 1 की ऊंचाई 12 मीटर एवं 63 मीटर व्यास वाला है। स्तूप से संबंधित वेदिका स्तंभ, सूची, ईंटें आदि पुरावशेष भी प्राप्त हुए हैं, जो सिद्ध करते हैं कि मौर्यकालीन समय में यह नगर बौद्ध धर्म का केंद्र था। सांची के स्तूप पर मिले दान अभिलेखों में से 5 दान अभिलेखों में तुम्बवन नगर के नागरिकों द्वारा किए गए दान का उल्लेख है।
(a) शहडोल
(b) खंडवा
(c) बड़वानी
(d) खरगोन
व्याख्या: (d) खरगोन जिले में स्थित कसरावद कस्बे से 3 मील दक्षिण में स्थित इतबर्डी नामक टीले के उत्खनन (1936-39) से मौर्यकालीन ग्यारह स्तूप प्राप्त हुए। सबसे बड़ा स्तूप मध्य में तथा दस छोटे स्तूप टीले के पूर्वी भाग में हैं। स्तूप, निवास, गृह व अन्य पुरावशेष इस स्थल को तृतीय द्वितीय शताब्दी पूर्व में महत्वपूर्ण बौद्ध केंद्र के रूप में स्थापित करते हैं। उत्खनन से प्राप्त मृद्भांडों पर भूतएसघस, तकसिल (तक्षशिला), सीहक (सिंहल) का उल्लेख मिला है। कसरावद बौद्ध धर्म के शिक्षा का एक विशाल केंद्र था। अशोक के समय यह पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था। यहां से प्राप्त मृद्भांडों पर सोलह भिक्षुओं के नाम मिले हैं।
टिप्पणी: महेश्वर एवं नावदाटोली पुरास्थल नर्मदा नदी के उत्तरी एवं दक्षिणी तटों (खरगोन जिला) पर स्थित है। इनमें महेश्वर की पहचान प्राचीन दक्षिणी अवंति की राजधानी माहिष्मती से की गई है। यह नगरी दक्षिणापथ मार्ग पर प्रतिष्ठान व उज्जैन के मध्य स्थित थी। महेश्वर से स्तूप के अवशेष के रूप में एक विशाल प्लेटफार्म, जो कि कड़ी मिट्टी पर बड़ी ईंटो की छाप से युक्त है, प्राप्त हुआ है। चूने से निर्मित प्लेटफार्म से स्तूप का प्रदक्षिणापथ बनाया गया था। निर्माण की प्रकृति के अनुसार इसका अंडभाग अधिक ऊंचा नहीं रहा होगा। अशोक ने अपने वरिष्ठ बौद्धाचार्य महादेव स्थविर को माहिष्मती अंचल में बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार हेतु भेजा था।
(a) खाचरौद
(b) बड़नगर
(c) सोढंग
(d) नागदा
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश में उज्जैन जिले के सोढंग ग्राम से एक मौर्यकालीन हस्तिशीर्ष स्तंभ प्राप्त हुआ है। यह लाल बलुए पत्थर से निर्मित है, जो वर्तमान में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन के संग्रहालय में संग्रहित है। संभव है कि यहां अशोक राज्यपाल रह चुके थे, उन्हीं ने इसे स्थापित किया हो। इसके दंड का एक टुकड़ा विलपांक में संरक्षित है। विष्णुश्रीधर वाकणकर ने उज्जैन में एक वृषभ शीर्ष स्तंभ का भी उल्लेख किया है, जिसमें मौर्यकालीन पालिश है और वर्तमान में यह उज्जैन के एक प्राचीन शिव मंदिर में स्थापित है। इस प्रकार उज्जैन से दो स्तंभ शीर्ष प्राप्त हुए हैं।
(a) गुप्तकाल
(b) मौर्यकाल
(c) परमारकाल
(d) चंदेलकाल
व्याख्या: (a) अजंता गुफाओं की भांति मध्य प्रदेश के मालवांचल में बाघ नामक स्थान पर बौद्ध गुफाएं विद्यमान रही हैं। ये गुप्तकालीन बौद्ध गुफाएं अजंता की भव्य वास्तु और चित्रकला की अपेक्षा काफी सादी एवं अस्थायी सी सिद्ध हुई हैं। फिर भी इसकी चित्रकला ने कला जगत का ध्यान आकर्षित किया है। बाघ की गुफाओं में सबसे उल्लेखनीय एवं विशाल गुहा क्र. 4 पर अवस्थित रंगमहल नामक बौद्ध विहार रही है। बाघ के इन चित्रों में शासर्थदत्त तीन पुरुष, गर्जी व अश्वों का समूह, वाद्यवादक है एवं नायिकाएं, कई जातक कथाएं, हल्लीसक नृत्य करती सजी-धजी महिलाएं, वियोगरत एक महिला एवं उसे सात्वना देती नारी आदि के चित्र आकर्षक बन पाये हैं। इन गुफाओं के प्रस्तर कच्चे होने के कारण इनका अस्तित्व व वैभव घट सा गया है। फिर भी इन गुफाओं की विशाल बुद्ध एवं बोधिसत्व प्रतिमाएं इन गुफा निर्माताओं की बौद्ध धर्म के प्रति आस्था का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। यद्यपि ये चित्र अजता शैली के हैं किंतु कला की दृष्टि से उनसे काफी पीछे हैं।
- सांची में निर्माण क्र. 26, 34 एवं 35 बौद्ध धर्म तथा गुप्तकाल से संबंधित स्तंभ है।
- स्तंभ क्र. 35 भग्नावस्था में है, जिसका 3.70 मीटर का टुकड़ा मिला है तथा स्तंभ के ऊपर का 1.15 मीटर भाग गोलाकार एवं चिकना है।
- स्तंभ के ऊपरी गोलाकार भाग का व्यास नीचे 77.5 सेमी. तथा शीर्ष 67.5 सेमी. है। उस पर पद्मपाणि बोधिसत्व की मूर्ति बैठी थी।
- इसका घंटाकृतियुक्त स्तंभ शीर्ष पर वर्गाकार चौकी है। इसमें प्रयुक्त पत्थर नागौरी है, जो सांची के गुप्तकालीन शिल्प की विशेषता है।
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 2 और 3
(d) उपर्युक्त सभी
व्याख्या: (b) सांची में निर्माण क्र. 26, 34 एवं 35 बौद्ध धर्म तथा गुप्तकाल से संबंधित स्तंभ है। ये स्तंभ गुप्तकाल से संबंधित माने जाते हैं। स्तंभ क्र. 26 नागोरी पत्थर का बना था। यह करीब 6.75 मीटर ऊंचा था। यह स्तंभ अशोक के स्तंभ की एक प्रतिकृति है। स्तंभ निर्माण क्र. 25 के थोड़ी दूरी पर यह टूटा हुआ खड़ा है।
स्तंभ क्र. 35 भग्नावस्था में है, जिसका 3.70 मीटर का टुकड़ा मिला है। स्तंभ से ऊपर का 1.15 मीटर का भाग गोलाकार एवं चिकना है, जबकि उसके नीचे का भाग वर्गाकार एवं भद्दा है। स्तंभ का ऊपरी गोलाकार भाग का व्यास नीचे 77.5 सेमी. तथा शीर्ष 67.5 सेमी. है। उस पर वज्रपाणि बोधिसत्व की मूर्ति बैठी थी। इसका घंटाकृतियुक्त स्तंभ शीर्ष पर वर्गाकार चौकी है। इसमें प्रयुक्त पत्थर नागौरी है, जो सांची के गुप्तकालीन शिल्प की विशेषता है। स्तंभ क्र. 34 के टुकड़े हो चुके है। प्राप्त दो टुकड़ों में एक स्तंभ के कुछ भाग घंटाकृति सहित है तथा दूसरा सिंहयुक्त चौकी का है।
(a) शैव एवं वैष्णव गुफाएं
(b) वैष्णव एवं बौद्ध गुफाएं
(c) बौद्ध एवं जैन गुफाएं
(d) बौद्ध एवं शैव गुफाएं
व्याख्या: (a) मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में स्थित उदयगिरि की गुफाएं प्रमुख रूप से शैव एवं वैष्णव गुफाएं हैं।
उदयगिरि गुफा क्र. 7 को वर्गाकार आधार वाले अर्ध गोलाकार स्तूप के सामने काटा गया है। इसमें प्रवेश द्वार के बाद 4.15x3.52 मीटर का ख़ुदा भाग है। दूसरी पिछली दीवार के अभिलेख से इसका चंद्रगुप्त द्वितीय के महासांधिविग्रहिक वीरसेन शाब द्वारा बनाये जाने का उल्लेख है। इसका द्वार चट्टानों में भद्दा कटा है। उस पर कोई अलंकरण नहीं है परंतु उसके दोनों ओर गुफा क्र. 6 के समान द्वारपाल उकेरे गये हैं। गुफा का आंतरिक भाग सादा है। छत पर 1.35 मीटर व्यास का कमल का विशाल पुष्प उकेरा गया है। गुफा के मध्य स्थित चट्टान में कटे चबूतरे से भी यह शिव से संबंधित गुफा विदित होता है।
उदयगिरि की गुहा क्र. 6, 7, 16, 17 एवं 19 शैव मत से संबंधित हैं। ये रामगुप्त, कुमारगुप्त एवं चंद्रगुप्त के राज्य काल में निर्मित हुई। ये कक्षनुमा एवं बरामदे युक्त हैं। ये गुफाएं देवी-देवताओं एवं अलंकरणों से युक्त रही हैं। उदयगिरि की गुहा क्र. 1 वैष्णव (कुछ के मत में जैन) गुहा है। इसी प्रकार गुहा क्र. 6, 7, 5, 9, 10, 11, 12, 13 भी वैष्णव छोटी, सादी, आयताकार कोठरीनुमा या खुली गुफाएं हैं।
गुफा क्र. 5 उदयगिरि की एक साधारण गुफा है और स्थापत्य की दृष्टि से अधिक महत्व नहीं रखती। यह गुफा 6.60 मीटर लंबी तथा 3.80 मीटर चौड़ी है। स्थापत्य की दृष्टि से अधिक वैभवशाली न होने पर भी यह गुफा भारतीय कला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसका कारण यह है कि यहां एक चट्टान पर एक विशाल वराह अवतार का दृश्य उत्कीर्ण है। इस दृश्य ने सारे स्थापत्य की कमी को न केवल दूर किया है किंतु एक चट्टान पर ही दिव्य-लोकों से लगातार पाताल तक के दृश्य इतने मनोहारी रूप अंकित किये हैं कि वे सारी स्थापत्य सृष्टि का एक अंग बन जाते हैं। वराह की प्रतिमा एक विशाल भाव-बोध लिये एक महामल्ल सी प्रतिमा है जो निश्चित ही सारे परिवेश को भव्य बना देती है। इस तरह इस गुफा को भारत के कला जगत ने अत्यधिक प्रतिष्ठा दी है।
वराह की इस विशाल प्रतिमा से हमें प्रथम बार एक वैष्णव गुफा के दर्शन भारत में होते हैं। वराह विष्णु का अवतार माना गया है। समुद्र से निकलने का दृश्य बड़ा प्रभावी है। वराह की क्षाढ़ों में स्त्री रूप धारण किये हुए पृथ्वी दिखाई देती है, जिसका अर्थ यह हुआ कि दैत्य हिरण्याक्ष को वराह भगवान ने समाप्त कर दिया है, ये शुभत्व और साधुत्व की रक्षा के लिए अवतीर्ण हो गये हैं। हर लोक के प्राणी भय और श्रद्धा से प्रणत होते दिखाई देते हैं। प्रच्छन्न रूप से वराह की कल्पना भागवत मतावलम्बी गुप्त सम्राट् चंद्रगुप्त द्वितीय को महत्ता प्रदान करने के लिए की गई प्रतीत होती है, जिसने विदेशी शक आक्रांताओं से भारतीय भूमि को मुक्त करने का बीड़ा उठाया था। शेषनाग का दर्प दमन करते हुए जो अंकन हुआ है, वह इन संभावनाओं को भी व्यक्त करता है कि गुप्त सम्राट ने विदिशा क्षेत्र का बहुत सा भाग नाग राजाओं से भी छीना होगा।
गुफा क्र. 13 एक दीर्घ, गलियारानुमा छत-विहीन गुफा है। स्थापत्य की दृष्टि से वह निश्चित ही अधिक महत्व की नहीं है, किंतु गुफा क्र. 5 की भांति कला की दृष्टि से महत्व की है। इस गुफा में 3.60 मी. लंबी शेषशायी विष्णु की एक प्रतिमा उत्कीर्ण है। विष्णु शेषशैया पर अपने एक हाथ का तकिया बना कर सोये हैं। पास में गरुड़ की प्रतिमा है। आठ अन्य प्रतिमाएं भी पास में हैं, जिन्हें पहचानना अब कठिन सा है कुछ अनुचरों की प्रतिमाएं भी उत्कीर्ण हैं। संभव है। है कि यहां उत्कीर्ण प्रतिमाओं में ब्रह्मा, लक्ष्मी तथा अन्य दिव्य एवं आलौकिक शक्तियां रही होंगी। सारा अंकन इतना जीर्णशीर्ण हो गया है कि निर्णायक रूप से कुछ भी कहना संभव नहीं है। शेषशायी विष्णु की प्रतिमा मूर्तिकला की दृष्टि से एक श्रेष्ठ गुप्तकालीन कृति है जो अब समय की कराल बाहों में समेटी जा चुकी है। फिर भी इसने गुफा क्र. 13 को अत्यधिक महत्ता प्रदान की है। गुफा क्र. 2.3, 8, 14, 15 व 18 सादी एवं अभिलेख-विहीन हैं।
(a) सीहोर
(b) सतना
(c) रीवा
(d) कटनी
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के कटनी जिले में स्थित तिगवां ग्राम में कंकाली देवी के नाम का एक गुप्तकालीन विष्णु मंदिर विद्यमान है। इस काल के सांची और एरण के मंदिरों की भांति यह आज भी सुरक्षित है। तिगवां का मंदिर 22 फीट की एक वर्गाकार संरचना है, जिस पर आठ फीट व्यास का मंदिर अवस्थित है। स्तंभ-युक्त प्रवेश द्वार मंडप तक पहुंचता है। इसका यह स्थापत्य बौद्ध-तोरणों की वैष्णव प्रतिकृति है। प्रवेश द्वार में मकरवाहिनी गंगा एवं कच्छपवाहिनी यमुना उत्कीर्ण है।
टिप्पणी: बुंदेलखंड में पन्ना जिले के अजयगढ़ परिक्षेत्र में उचेहरा के समीप अवस्थित नचना कुठरा (प्राचीन चणक) में एक गुप्तकालीन पार्वती मंदिर विद्यमान है। पांचवीं शताब्दी में निर्मित यह मंदिर 25 फीट वर्गाकार चत्वर पर 15 फीट की वर्गाकार पृष्ठभूमि पर आज भी तत्कालीन शाक्त आस्था को समाहित किये हुए है। मंदिर के द्वार गुप्तकालीन अलंकरणों से सज्जित है।
(a) सिंगरौली
(b) सतना
(c) भोपाल
(d) जबलपुर
व्याख्या: (b) सतना जिले के पूर्व नागौद राज्य में स्थित भूमरा के शैव मंदिर का शिवलिंग एकमुखी है। वस्तुतः यह भूमरा नामक मंदिर था। इसकी संरचना नचना के मंदिर की भांति ही है। इसका निर्माण समय पांचवीं सदी का उत्तरार्द्ध रहा। मंदिर का गर्भगृह वर्गाकार है। इसके चारों ओर ईंटों से निर्मित का प्रकार रहा। मंदिर का अभिलेख इसके निर्माण का श्रेय पद्मावती के भारशिव नाग-शासकों को देता है।
(a) सीहोर
(b) झाबुआ
(c) सिंगरौली
(d) शिवपुरी
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले में गुप्तोत्तरयुगीन अत्याधिक अलंकृत महुआ का शिव मंदिर स्थित है, जिसमें शैल बाहुओं पर मूर्तियुक्त आले तथा भित्ति स्तंभों के दृश्यों का समावेश है इस मंदिर में सातवीं शताब्दी का एक अभिलेख भी है।
मध्य प्रदेश के मंदसौर जिलांतर्गत माकनगंज में एक असाधारण प्रकार का मंदिर प्राप्त हुआ है, जिसमें केवल पृष्ठ भाग पर मुख्य शैलबाहु है तथा दीवार केवल एक आले से अलंकृत है, जो त्रिकोणात्मक छत से आवृत्त है तथा एक लेख युक्त प्रस्तर पट्टिका है, जिसमें महुआ मंदिर के अभिलेख के समान लिपि उत्कीर्ण है। यहीं से प्राप्त एक दूसरे मंदिर में वर्गाकार त्रिरथ गर्भगृह तथा एक बिल्कुल सादी दीवार है, जो अपने छत के कारण उल्लेखनीय है। इसमें सीढ़ीनुमा स्तूप कोण अपूर्ण रूप से सुरक्षित है, जो चौत्य गवाक्षों तथा विलक्षण मानव शीषों से अलंकृत है।
विशेष: सातवीं-आठवीं शताब्दी में विभिन्न प्रकार के मंदिर बनाये गये थे तथा सपाट छत वाले मंदिर के अनेक उदाहरण दूसरे प्रकार में अविकसित वक्रीय शिखर तथा कुछ में घटते हुये तलों की कोणाकार छत वाले उदाहरण मिलते है। छोटे, सपाट छत वाले मंदिरों में त्रिरथ गर्भग्रह तथा सामने की ओर दो स्तंभों से युक्त मंडप है। मंडप मध्य भारत में पाये जाते है तथा प्रारंभिक प्रकार के गुप्त मंदिरों की परंपरा का निर्वाह करते हैं। वर्तमान मध्य प्रदेश में इस काल के निर्मित मंदिर रामगढ़, छापर तथा बड़ोह (विदिशा जिला) में स्थित है। यह मंदिर गुप्तकाल के प्रारंभिक मंदिर सांची और तिगवां के समान है।
1. इस काल की लकुलीश की एक प्रतिमा इंद्रगढ़ (मंदसौर) से प्राप्त हुई है। शिव के नटराज रूप की प्रतिमायें मंदसौर जिले में आवरा, मनासा तथा हिंगलाजगढ़ से प्राप्त हुई है। इस काल की उमा महेश्वर की प्रतिमायें हिंगलाजगढ़, भानपुरा तथा आवरा में संरक्षित है।
2. शैव प्रतिमाओं के समान ही विवेच्य क्षेत्र से गुप्तोत्तर कालीन वैष्णव प्रतिमायें भी प्राप्त हुई हैं। आठवीं शताब्दी की त्रिविक्रम विष्णु की एक प्रतिमा इंद्रगढ़ से प्राप्त हुई है।
3. इस क्षेत्र से कुछ देवी प्रतिमाओं की प्राप्ति के उल्लेख भी मिले है। प्रमुख प्रतिमाओं में मंदसौर क्षेत्र के हिंगलाजगढ़ से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी, इंद्रगढ़ में संरक्षित सप्तमातृका की प्रतिमा, सिनावल, दतिया से प्राप्त पार्वती तथा ग्वालियर से प्राप्त श्री कल्याणदेवी की लेखयुक्त प्रतिमायें उल्लेखनीय हैं।
4. ब्राम्हण धर्म के कुछ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमायें भी मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त हुई हैं। इनमें तुमैन, गुना से प्राप्त सर्वतोभद्र प्रतिमा तथा मंदसौर जिले के आवरा से प्राप्त अष्टभुजी गणेश की प्रतिमा उल्लेखनीय है।
(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 4
(c) केवल 2 और 3
(d) उपर्युक्त सभी
व्याख्या: (b) इस काल की लकुलीश की एक प्रतिमा इंद्रगढ़ (मंदसौर) से प्राप्त हुई है। शिव के नटराज रूप की प्रतिमायें मंदसौर जिले में आवरा, मनासा तथा हिंगलाजगढ़ से प्राप्त हुई है। इस काल की उमा-महेश्वर की प्रतिमायें हिंगलाजगढ़, भानपुरा तथा आवरा में संरक्षित है। शैव प्रतिमाओं के समान ही विवेच्य क्षेत्र से गुप्तोत्तर कालीन वैष्णव प्रतिमायें भी प्राप्त हुई है। आठवीं शताब्दी की त्रिविक्रम विष्णु की एक प्रतिमा इंद्रगढ़ से प्राप्त हुई है। इस क्षेत्र से कुछ देवी प्रतिमाओं की प्राप्ति के उल्लेख भी मिले है। प्रमुख प्रतिमाओं में मंदसौर क्षेत्र के हिंगलाजगढ़ से प्राप्त महिषासुरमर्दिनी, इंद्रगढ़ में संरक्षित सप्तमातृका की प्रतिमा, सिनावल, दतिया से प्राप्त पार्वती तथा जबलपुर से प्राप्त श्री कल्याणदेवी की लेखयुक्त प्रतिमायें उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त ब्राह्मण धर्म के कुछ अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमायें भी मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से प्राप्त हुई है। इनमें तुमैन, गुना से प्राप्त सर्वतोभद्र प्रतिमा तथा मंदसौर जिले के आवरा से प्राप्त अष्टभुजी गणेश की प्रतिमा उल्लेखनीय है।
1. सामान्यतः प्रतिहार कालीन मंदिरों के शिखर ऊपर की तरफ अंदर की ओर धंसते हुए बनाये गये हैं, जिन्हें रेखा नागर - शीर्ष कहा जाता है, परंतु अन्य प्रकार के शिखरों का निर्माण भी किया गया, उदाहरणार्थ शालशिखर या वलभी या गजपृष्ठाकार के शिखर और फांसना प्रकार के शिखर ( शंकु आकार )। नरेसर (मुरैना जिला) तथा तेली का मंदिर (ग्वालियर) के शिखर वलभी प्रकार के हैं, जबकि कूटकेश्वर महादेव मंदिर, पठारी फांसना शिखर युक्त मंदिर है।
2. प्रारंभिक चरण के मंदिरों के शिखर के भद्ररथ (भद्रलता ) ग्रीवा तक ऊंचे बनाये गये हैं, परंतु मध्यचरण एवं चरमोत्कर्ष काल में उक्त भद्ररथ ग्रीवा की ऊंचाई से अधिक बनाये गये। शिखर के शीर्ष अंगों के रूप में आमलसार, कलश और बीजपूरक लगाये गये हैं।
3. शिखर के उद्गमस्थल और मंडप की छत के समापन स्थल के पास शिखर में ही एक शुकनासिका का निर्माण किया गया है, जो विशाल चौत्य गवाक्ष की आकृति के रूप में है और इसमें मंदिर के मुख्य देवता की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की गयी। सूर्य मंदिर मनखेड़ा, देवगढ़ का मंदिर क्र. 12 और मालादेवी, ग्यारसपुर में सुविकसित शुकनासिकाएं बनायी गयी है।
4. प्रतिहार शैली के मंदिर सामान्यतः मध्यम आकार के है, परंतु चरमोत्कर्ष काल में विशाल आकार के बनाये जाने लगे, जिनमें तेली का मंदिर, ग्वालियर, गडरमल मंदिर, बडोह, जरायमठ मंदिर, बरुआ सागर (झांसी), सीताराम की लावन (भिंड) और मालादेवी मंदिर, ग्यारसपुर प्रमुख है।
(a) केवल 1
(b) केवल 3 और 4
(c) केवल 2 और 3
(d) केवल 1 और 3
व्याख्या: (a) सामान्यतः प्रतिहार कालीन मंदिरों के शिखर ऊपर की तरफ अंदर की ओर धंसते हुए बनाये गये हैं, जिन्हें रेखा नागर - शिखर कहा जाता है, परंतु अन्य प्रकार के शिखरों का निर्माण भी किया गया, उदाहरणार्थ शालशिखर या वलभी या गजपृष्ठाकार के शिखर और फांसना प्रकार के शिखर (शंकु आकार)। नरेसर (मुरैना जिला) तथा तेली का मंदिर (ग्वालियर) के शिखर वलभी प्रकार के हैं, जबकि कूटकेश्वर महादेव मंदिर, पठारी फांसना शिखर युक्त मंदिर है। प्रारंभिक चरण के मंदिरों के शिखर के भद्ररथ (भद्रलता) ग्रीवा तक ऊंचे बनाये गये हैं, परंतु मध्यचरण एवं चरमोत्कर्ष काल में उक्त भद्ररथ ग्रीवा की ऊंचाई से अधिक बनाये गये। शिखर के शीर्ष अंगों के रूप में आमलसार, कलश और बीजपूरक लगाये गये हैं। शिखर के उद्गमस्थल और मंडप की छत के समापन स्थल के पास शिखर में ही एक शुकनासिका का निर्माण किया गया है, जो विशाल चौत्य गवाक्ष की आकृति के रूप में है और इसमें मंदिर के मुख्य देवता की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की गयी। सूर्य मंदिर मनखेड़ा, देवगढ़ का मंदिर क्र. 12 और मालादेवी, ग्यारसपुर में सुविकसित शुकनासिकाएं बनायी गयी है। प्रतिहार शैली के मंदिर सामान्यतः मध्यम आकार के है, परंतु चरमोत्कर्ष काल में विशाल आकार के बनाये जाने लगे, जिनमें तेली का मंदिर, ग्वालियर, गडरमल मंदिर, बडोह, जरायमठ मंदिर, बरुआ सागर (झांसी), सीताराम की लावन (भिंड) और मालादेवी मंदिर, ग्यारसपुर प्रमुख है।
(a) अशोकनगर
(b) गुना
(c) शिवपुरी
(d) ग्वालियर
व्याख्या: (c) वामन-लतिन शिखर युक्त मंदिर सामान्यतः संपूर्ण गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य में निर्मित हुए। परंतु उत्तरी मध्य प्रदेश और बुंदेलखंड के क्षेत्र में ही इन मंदिरों के सुरक्षित उदाहरण उपलब्ध हैं। ग्वालियर दुर्ग, नरेसर एवं बटेसर मंदिर समूह (जिला मुरैना), महुआ, तेरहि, केलधार (शिवपुरी जिला), आमरोल (ग्वालियर), वराहवली (मुरैना), खेराट, डांग, सीताराम की लावन, बाराहेड (जिला भिंड), ऐंती (जिला मुरैना), सेसई (जिला शिवपुरी), मनखेड़ा, उमरी (टीकमगढ़ जिला), बांधवगढ़ (जिला शहडोल), देवगढ़ (जिला ललितपुर), बरूआ सागर (जिला झांसी), सांची (जिला रायसेन) 'आदि स्थलों से वामन ललित शिखर युक्त अर्थात रेखा - शिखर युक्त मंदिरों के उत्कृष्ट उदाहरण सूचित हैं। ताराकृत भू-योजना युक्त मंदिर के निर्माण का प्रयोग इंदौर स्थित गर्गज महादेव मंदिर में दृष्टव्य है। इस मंदिर में गोलार्द्ध में 40 और 60 अक्षांश कोणों पर एक के बाद एक बारह भद्रों का निर्माण किया गया है। परिणामस्वरूप मंदिर का शिखर वृत्तसंस्थानक आकार का बन पड़ा है। मालवा क्षेत्र में इस प्रकार की भू-योजना वाले मंदिरों को किंचित परिष्कृत रूप दिया गया है, जिसे शिल्पशास्त्रों में भूमिज शैली के नाम से अभिहित किया गया। प्रतिहार काल का यह एक मात्र भूमिज शैली का मंदिर है। वलभी शिखर युक्त मंदिर नरेसर और ग्वालियर दुर्ग से सूचित हैं। वलभी (गजपृष्ठाकार) शिखर युक्त मंदिरों का सूक्ष्म अंकन महुआ स्थित धूर्जटि महादेव मंदिर के प्रवेश द्वार की धरणी पर दृष्टव्य है, जहां इसे अलंकृत चौत्योद्गम के स्थान पर अंकित किया गया है। नरेसर का शाक्त मंदिर, धूर्जटि महादेव मंदिर के प्रवेश द्वार की धरणी पर अंकित उक्त अभिकल्प की प्रयोगशाला के रूप में प्रतीत होता है, जिसका वृहदरूप तेली का मंदिर के रूप में दृष्टव्य है। फांसना शैली का एक मंदिर बडोह से सूचित है, साथ ही एक फांसना शिखर युक्त मंदिर कदवाहा से भी उपलब्ध है। इस विधि के मंदिरों गर्भगृह पर प्रस्तर शिलाओं को नीचे से ऊपर के क्रम में घटते हुए परिमाप में इस प्रकार संयोजित किया गया है कि उनका (शिखर) आकार शंकु जैसा प्रतीत होता है। ऐसा ही एक किंचित भग्न मंदिर नरेसर से भी सूचित है। परवर्ती प्रतिहार काल में नरेसर में लगभग 11 मंदिर फांसना विधि से बनाये गये थे।
(a) मिहिरभोज
(b) अल्ल
(c) वाइल्लभट्ट
(d) नागभट्ट
व्याख्या: (b) ग्वालियर में चतुर्भुज मंदिर दुर्ग के पूर्वी हिस्से में महापौर के समीप स्थित है। वास्तुकला की दृष्टि से यह मंदिर अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इसमें संरचनात्मक और शैलकृत स्थापत्य की दोनों विधाओं का संयोग दिखाई देता है। यह पूर्वाभिमुख मंदिर पंचांग योजना पर निर्मित है। इसकी निर्माण योजना में एक चार स्तंभों पर आश्रित खुला मंडप, अंतराल और गर्भगृह आदि अंग नियोजित हैं। वेदीबंध बहुत नीचा है जिसमें जाड्यकुम्भ, खुर कुम्भ और कलशबंध निर्मित हैं। जंघा भाग पर बने प्रत्येक रथ पर एक देवकुलिका निर्मित है जिस पर चौत्य उद्गम अभिकल्प सज्जित है। पश्चिम उत्तर और दक्षिण के भद्रकोष्ठों में विष्णु, त्रिविक्रम और कार्तिकेय की मूर्ति प्रतिष्ठित हैं। गर्भगृह में जड़े हुए एक शिलालेख के अनुसार इसका निर्माण मिहिरभोज के शासनकाल में अल्ल नामक राज्याधिकारी ने कराया था। अल्ल के पिता वाइल्लभट्ट स्वामी ग्वालियर दुर्ग के कोट्टपाल थे। इस मंदिर का निर्माण 9वीं शताब्दी ई. में हुआ था।
इस मंदिर की निर्माण योजना में एक खुले चार स्तंभयुक्त मंडप और गर्भगृह का विधान किया गया है। इसमें भी गर्भगृह और मंडप को जोड़ने वाला वास्तु अंग कपिली निर्मित की गयी है। मंदिर एक नीची जगती पर निर्मित है। इसका अधिष्ठान खुर, कुम्भ, कलश आदि बंधनों से युक्त है। इसका शिखर पंचरथ योजना पर निर्मित है जिसके कर्णरथों पर भूमि - आमलक आकृतियां बनाई गयी हैं। अन्य रथिकाएं लघुचौत्य आकृतियों की श्रृंखला से सज्जित हैं। गर्भगृह की बाह्य भित्ति पर बने भद्रकोष्टों में वैष्णव प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा की गई है। प्रतिरथ और कर्णरथिका बिम्बों में भी देव प्रतिमाएं बनाई गयी हैं। मंदिर के बाहरी भाग में अष्ट दिक्पालों का भी अंकन उनकी निर्धारित दिशा में किया गया है।
वरण्डिका भाग पर पुनः अधिष्ठान के बंधनों का समायोजन है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार एकाधिक शाखाओं से युक्त है। मंडप की धरणी पर कृष्णलीला के बहुविध अंकन किए गए हैं। मंदिर का शिखर वस्तुतः पंचांडक था जिसमें कालांतर में संरक्षण की दृष्टि से परिवर्तन किया गया है इसलिए इसमें अब तीन अंडक ही सुरक्षित हैं। शुकनासिका विकसित चौत्य गवाक्ष सदृश निर्मित हैं जिसमें तीन अलंकृत श्रृंखलाएं बनी हैं। प्रत्येक श्रृंखला में प्रदर्शित कुलिकाओं में देव मूर्तियां रही होंगी।
मंडप (प्राग्ग्रीवा) की धरणी पर कपिशीर्ष आकृतियों का अलंकरण है। ऊपरी धरणी पर कृष्णलीला के दृश्य अंकित हैं जिनमें गोवर्द्धन-धारण, पूतना वध, चाणूर- वध, कंस वध, दही मथती यशोदा और पास खड़े बालकृष्ण आदि दृश्य अत्यंत मनोहारी हैं। मंडप का वितान समतल है। गर्भगृह का प्रवेश द्वार त्रिशाख है। ललाट बिंब पर गरुड़ की आकृति अंकित है। उत्तरंग पर तीन कोष्ठों में देव मूर्तियां बनी हैं। इसके ऊपर के भाग में सात लघुकोष्ठों में संभवतः सप्तमातृकाओं का अंकन है जो क्षरण के कारण अस्पष्ट है।
गर्भगृह निरंधार एवं वर्गाकार है। इसके वितान के चारों कोनों में एक-एक भद्रक स्तंभ भित्ति से संलग्न हैं। गर्भगृह में विष्णु की मूर्ति, अधुना प्रतिष्ठित है। इसकी दाहिनी अंतर्भित्ति पर देवनागरी लिपि में दो संस्कृत शिलालेख लिखे हैं। शिलालेख के आधार पर इस मंदिर का निर्माण ग्वालियर दुर्ग पर नियुक्त प्रतिहार कालीन कोट्टपाल वाइल्लभट्ट स्वामी के पुत्र अल्ल द्वारा कराया गया था। शिलालेख में अंकित तिथि के अनुसार इसका निर्माण लगभग 875 ई. में प्रतिहार शासक भोज प्रथम के शासनकाल में हुआ था।
(a) 6ठी शताब्दी
(b) 11वीं शताब्दी
(c) 9वीं शताब्दी
(d) 13वीं शताब्दी
व्याख्या: (c) ग्वालियर दुर्ग स्थित मंदिरों और प्रतिहार शैली के मंदिरों में सबसे विशिष्ट तेली का मंदिर है। यह मंदिर नागर शैली के मंदिरों के अंतर्गत वलभी प्रकार का प्रतिनिधित्व करता है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। मंदिर में प्रवेश हेतु अलंकृत तोरणद्वार बनाया गया है जिसे प्रतिहार कालीन और कुछ परवर्ती वास्तुखंडों के मिश्रण से तैयार किया गया है। यह एक नीचे चबूतरे पर बना है। इसकी निर्माण योजना में एक अर्द्धमंडप, अंतराल और आयताकार गर्भगृह नियोजित किए गये हैं। संभवतः इसके सामने एक मंडप भी रहा होगा जो अब नष्टप्राय है। गर्भगृह आयताकार है।
इसका अधिष्ठान भारी-भरकम है जिसने खुर, कुम्भ, कलश, कपोतिका आदि बंधन है। अंतरपट्ट में देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। मंदिर के बाह्य भाग में चारों तरफ छोटी-छोटी कुलिकाओं में पंक्तिबद्ध देवी-देवताओं की मूर्तियां बनी हुई हैं। इस मूर्ति श्रृंखला के ऊपर की पट्टिका पर लहरिया अभिकल्प (स्क्रॉल) प्रदर्शित है। बाह्य भित्ति की चारों कोणीय दिशाओं में देवकोष्ठ बने हैं जिनके ऊपरी भाग में उद्गम अथवा मंदिर के शिखर का लघु अभिकल्प प्रदर्शित है। अष्टदिक्पालों का अंकन भी उनकी निर्धारित दिशाओं में किया गया है। मंदिर के कर्णरथों में चौत्योद्गम आकृतियां बनी हुई हैं। बाह्य दीवारों के मध्य भाग में एक मिथ्या द्वार निर्मित है।
वेदिबंध में पांच बंधन हैं जिनमें खुर, कुंभ, जाड्यकुम्भ मंचिका और तुलापीठ आदि बंधन प्रमुख हैं। इन बंधनों के बीचों-बीच में बनी अंतर्पटिकाओं पर पशु, पुष्प और घट - पल्लव अभिकल्पों के अलंकरण किए गये हैं। मंचिका बंधन पर तुलापीठ अभिकल्प की दो श्रृंखलाएं बनी हैं जिन पर जालकर्म अभिकल्प प्रदर्शित हैं। यत्र-तत्र चौत्य अभिकल्प का भी अंकन किया गया है। इस मंदिर में शिखर दो तलों में निर्मित है जिसमें अंडक प्रदर्शित हैं। इन अंडकों के शीर्ष भाग पर शाल- शिखर के दो तल क्षीण क्रम में बनाए गये हैं। शाल- शिखर के उत्तर एवं दक्षिण दिशा के संकरे अंत में चौड़े एवं विशाल चौत्य गवाक्ष प्रदर्शित हैं जिनके ऊपर एक-एक सूर्य वातायन मेहराब आकृति से सज्जित बनाये गये हैं। शिखर की पूर्व और पश्चिम दिशा में कुलिकाओं की दो पंक्तियां नियमित हैं। उपर्युक्त चौत्य गवाक्ष (सुरसेनक) के उत्तर दिशा में लकुलीश और दक्षिण दिशा में अष्टभुजी सिंहवाहिनी दुर्गा की आकृति प्रतिष्ठित हैं। शिखर का सबसे ऊपरी तल गजपृष्ठाकार (वलभी प्रकार) है। मंदिर में सोपान मार्ग से प्रवेश करते हैं जिसका प्रवेश द्वार पंचशाख है। इस अद्भुत प्रवेशद्वार के निचले दोनों पार्यो में एक तरफ गंगा और दूसरी तरफ यमुना को वाहन सहित अंकित किया गया है। नदी देवियों के साथ छत्रधारिणियों एवं शैव द्वारपालों की भव्य मूर्तियां प्रदर्शित हैं। दाहिनी तरफ लकुलीश अपने शिष्यों के साथ अंकित हैं। द्वार शाखाओं पर पुष्प वल्लरी, घट, स्तंभ और मिथुनी युगलों की आकृतियां बनाई गयी हैं। ललाटबिंब पर दोनों हाथों से सर्प को पकड़े हुए गरुड़ की आकृति अंकित है। प्रवेशद्वार के उत्तरंग पर दो अलंकृत पट्टिका बनाई गयी हैं।
अंतराल दो भागों में विभक्त है जो अंदर की तरफ दोनों पार्यों में दीवार के उभरे हिस्से से स्पष्ट होता है। अतः गर्भगृह का दूसरा प्रवेश एक अन्य सांकेतिक द्वार से युक्त है, जिसकी प्रतीति दोनों पार्यो में शाक्त द्वारपालों के मध्य से कराई गयी है। इस आधार पर इस मंदिर को शक्ति को समर्पित निरूपित किया जा सकता है। इस तथ्य की पुष्टि शिखर पर प्रतिष्ठित अष्टभुजी सिंहवाहिनी दुर्गा की मूर्ति एवं मंदिर की शिला पर उत्कीर्ण एक लेख से भी होती है।
गर्भगृह आयताकार है जिसकी नाप 30x20 फीट है। इसके चारों कोणों पर विशाल स्तंभ वितान को संभालते हुए लगाए गये हैं। सांकेतिक प्रवेशद्वार के दोनों पार्यों में एक-एक स्तंभिका संलग्न है जो गर्भगृह की धरणी को संभाल रही हैं। सभी धरणियों पर तमालपत्र, पुष्प और मनके से अलंकृत पट्टियां बनी हैं जिनके ऊपर की तरफ तुलापीठ की पंक्ति प्रदर्शित है। तुलापीठ अभिकल्प पर पुष्प का अलंकरण भी है।
मंदिर की बाह्य भित्ति पर बनी कुलिकाओं में लकुलीश शिव, ब्रह्मा, दिक्पाल त्रिविक्रम विष्णु, पार्वती, अजएकपाद आदि देव प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। वास्तु एवं मूर्तिशिल्प शैली की दृष्टि से यह मंदिर 9वीं शताब्दी ई. में निर्मित हुआ प्रतीत होता है।
(a) मूर्तियों की देहयष्टि इकहरी और रेखाओं के प्रवाहमयी संयोजन के कारण गतिमान दिखाई देती है।
(b) मुख किंचित अंडाकार है। अधर (होंठ) स्थूल किंतु संयोजित है, जिसमें ऊपरी होंठ चिबुक से संलग्न प्रतीत होता है।
(c) रूप लावण्य की दृष्टि से मूर्तियां अत्यंत कमनीय हैं। इनमें गुप्तकालीन मूर्तियों की तरह सादगी का समावेश है।
(d) पौराणिक दृश्यों के अंकन में त्रिआयामी प्रभाव का आरोपण किया गया है ताकि मूर्तियों में बोझिलपन न आ सके।
व्याख्या: (b) गुर्जर प्रतिहार कालीन मूर्तिकला का उद्गम गुप्तकालीन शिल्प परंपरा है। इसमें गुप्तकालीन शास्त्रीयता, आध्यात्मिक भाव और कथा - सम्प्रेषण के लक्षण विद्यमान है मूर्तियों में अलंकरण न्यूनतम है। साथ ही शिल्पी के हस्त कौशल के दर्शन मूर्तियों की सुकुमार रेखाओं, उनके प्रवाह और परिष्कृत लक्षण विधि में होते हैं। इस काल में मूर्ति-शिल्प के अलौकिक प्रयोग अंतर्वेदी, दशार्ण, पश्चिमी मालवा तथा गोपाद्रि क्षेत्र में हुए अंतर्वेदी की मूर्ति - कला ब्राह्मण धर्म की आधारपीठिका पर विकसित हुई। दशार्ण क्षेत्र की कला में ब्राह्मण धर्म के साथ ही साथ जैन मतं का भी संविलयन हुआ, जो पश्चिम मालवा के प्रतिमानों के अनुरूप ही थी, परंतु गोपाद्रि क्षेत्र की गुर्जर-प्रतिहार युगीन मूर्तिकला के विकास में शैव- सिद्धांत संप्रदाय का साहचर्य उल्लेखनीय है। गुप्तकालीन मूर्ति कला के विकासमान रूप में संचारित तथा अंतर्वेदी और दशार्णशैलियों की संक्रमण युगीन गतिविधियों से यहां की कला सम्पुष्ट है। पवाया, कोटा (शिवपुरी) और तुमैन की गुप्तयुगीन शिल्प विशेषताओं के समागम से गोपाद्रि क्षेत्र की मूर्तिकला का एक नवीन रूप उभरकर कला इतिहास के क्षेत्र में प्रकट हुआ, जिसे रमानाथ मिश्र ने गोपाद्रि शैली के नाम से संबोधित किया है।
गुर्जर-प्रतिहार युगीन मूर्ति - शिल्प में शैव, वैष्णव, शाक्त और जैन धर्म से संबद्ध मूर्तियां विशिष्ट है। इस युग में मूर्तियों का उपयोग अधिकांशतः मंदिरों की भित्तियों के अलंकरण के लिए किया गया। मात्र मूर्तियां ही अलंकरण का माध्यम नहीं बनी अपितु अनेक आलंकारिक अभिकल्प भी विकसित हुए. जैसे- नागबन्ध, रत्नबन्ध, व्यालमुख, पशु-पक्षियों को रूपायित करने वाले अभिकल्प आदि। सामान्यतः शिल्पशास्त्रों में निर्दिष्ट मूर्ति लक्षणों का उपयोग मूर्तियों की रचना में किया गया है, परंतु निश्चित रूपेण शास्त्रीय निर्देशों का अधिकांशतः अभाव है। इस प्रकार गुर्जर प्रतिहार युगीन मूर्तिकला धार्मिक दृष्टि से अध्यात्म की उत्प्रेरक थी तथा बौद्धिक दृष्टि से सार्वभौम थी। इस मूर्ति - शिल्प की प्रमुख विशेषताएं निम्नांकित है:
1. मूर्तियों की देहयष्टि इकहरी और रेखाओं के प्रवाहमयी संयोजन के कारण गतिमान दिखाई देती है।
2. मुख किंचित अंडाकार है। अधर (होंठ) स्थूल किंतु संयोजित है, जिसमें निचला होंठ चिबुक से संलग्न प्रतीत होता है।
3. रूप लावण्य की दृष्टि से मूर्तियां अत्यंत कमनीय हैं। इनमें गुप्तकालीन मूर्तियों की तरह सादगी का समावेश है।
4. पौराणिक दृश्यों के अंकन में त्रिआयामी प्रभाव का आरोपण किया गया है ताकि मूर्तियों में बोझिलपन न आ सके।
(a) नांदचांद (पन्ना)
(b) खैरहा (जबलपुर)
(c) देवलाना (नासिक)
(d) बड़वाह (खरगोन)
व्याख्या: (a) त्रिपुरी के शिल्प के प्रारंभिक उदाहरण नांदचांद (पन्ना) से प्राप्त मातृका मूर्ति के रूप में उपलब्ध हैं। यहां की मातृका मूर्तियों (वाराही, वैष्णवी, एन्द्री आदि) को उनके वाहन सहित अत्यंत सहज शैली में संवारा गया है। लगभग 7वीं शताब्दी की इन मूर्तियों में मातृत्व की शाश्वत भावना के दर्शन होते हैं। अलंकरण का इनमें अभाव है। इसका उत्कृष्ट उदाहरण सागर विश्वविद्यालय संग्राहालय में संरक्षित अर्द्धनारीश्वर मूर्ति है।
लगभग 9वीं शताब्दी में सागर और उसके आसपास का क्षेत्र कल्चुरी स्थापत्य और मूर्तिकला का प्रमुख केंद्र बना। इसके अतिरिक्त जबलपुर क्षेत्र (बड़गांव, कारीतलाई, छोटी देवरी) एवं रीवा-सीधी क्षेत्र (बांधवगढ़) उल्लेखनीय रहे। सागर और उसके आसपास के क्षेत्रों की मूर्तियां सुंदर और सजीव हैं। ये मूर्तियां अधिकांशतः मंदिरों के ललाटबिंबों पर उत्कीर्ण हैं। इनमें नटेश का गतिशील नृत्य भंगिमाओं का अंकन हुआ है। नटेश के अतिरिक्त रहली के सूर्य मंदिर की शिव, विष्णु, ब्रह्मा, उमा-महेश्वर और हरिहर की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। ऐसे शिलाखंड बीना - बारहा में भी मिले हैं। 10वीं शताब्दी में इन शिलाखंडों में अनेक परिवर्तन हुये।
कल्चुरी कला की 9वीं शताब्दी की विशेषतायें बेला-बैजनाथ (रीवा) एवं बिनाइया (सागर) के मंदिरों की मूर्तियों में स्पष्टतः देखने को मिलती हैं। 9वीं शताब्दी ई. के उत्तरार्द्ध में उत्तर भारत की मूर्तिकला में कमनीयता, भंगिमा तथा अत्यधिक अलंकरण की प्रवृत्ति प्रारंभ हुई और यह प्रवृत्ति कल्चुरी कला में भी देखी जा सकती है। ऐसी मूर्तियों में चौपड़ खेलते उमा-महेश्वर, हरिहरपितामह, विष्णु, सूर्य, शिव उल्लेखनीय हैं। 9वीं शताब्दी में कारीतलाई भी कल्चुरी शैली का एक महत्वपूर्ण कलाकेंद्र था। 9वीं से 11वीं शताब्दी के मध्य यहां मूर्तिकला के तीन स्तर देखे जा सकते हैं। प्रारंभिक मूर्तियां चौकोरपन लिये, रेखाओं का सरल प्रभाव विहीन, परिकर अलंकरण विहीन तथा भावाभिव्यक्ति में स्वाभाविकता की कमी लिये हुए है। विकासक्रम में इन प्रवृत्तियों में सुधार हुआ जैसा कि जबलपुर और शहडोल की मूर्ति में देखा जा सकता है। कारीतलाई की अधिकांश मूर्तियां सम्प्रति रायपुर के महन्त घासीदास संग्रहालय में सुरक्षित प्रदर्शित हैं।
(a) रानी नोहला
(b) महारानी अल्हणदेवी
(c) रानी रोहिला
(d) रानी कल्याणदेवी
व्याख्या: (b) जबलपुर के भेड़ाघाट स्थित चौंसठ योगिनी मंदिर कल्चुरी काल की महत्वपूर्ण रचना थी। इस मंदिर के निर्माण काल अथवा निर्माता के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं मंदिर में रखी योगिनी प्रतिमाओं पर अंकित लेखों की शैली के आधार पर इनका निर्माण मूलतः 10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ माना गया है किंतु यह मंदिर अपने वर्तमान रूप में इतना प्राचीन नहीं है। इसकी दीवार को देखने से ऐसा लगता है कि उसका निर्माण दो विभिन्न कालों में हुआ। इसकी प्राचीन दीवार और अभिलिखित मूर्तियों की रचना 10वीं शताब्दी के मध्य के आसपास हुई और दीवार के ऊपरी भाग एवं छत तथा स्तंभों का निर्माण रानी अल्हणदेवी ने 12वीं शताब्दी में करवाया जब उसने वृत्ताकार घेरे के मध्य में स्थित गौरीशंकर मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर के गर्भगृह के द्वार के दाहिनी ओर उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार महारानी अल्हणदेवी महाराज श्री विजयसिंहदेव एवं महाकुमार अजयसिंहदेव के साथ शिव को प्रणाम करने हेतु नित्य यहां आती थी। खुली छत का वृत्ताकार चौंसठ योगिनी मंदिर का भीतरी व्यास 116 फीट 2 इंच और बाहरी व्यास 130 फीट 9 इंच है। दीवार में दो प्रवेश द्वार हैं, जिसमें एक दक्षिण-पूर्व में एवं दूसरा पश्चिम में स्थित है। घेरे के भीतरी भाग में 81 देवकुलिकायें हैं, जिन पर योगिनी एवं अन्य प्रतिमाएं स्थापित हैं। गौरीशंकर मंदिर के गर्भगृह में नन्दी पर आरूढ़ उमा-महेश्वर की प्रतिमा है। गर्भगृह में अन्य प्रतिमायें भी एकत्रित की गई हैं।
(a) मुरैना
(b) कटनी
(c) नीमच
(d) दमोह
व्याख्या: (d) मध्य प्रदेश के दमोह जिले में नोहटा का शिव मंदिर 10वीं शताब्दी के सुरक्षित कलावशेषों में महत्वपूर्ण है। यहां की मूर्तिकला विलक्षण है, साथ ही इसमें मातृका की बहुलता है, जो अधिष्ठान भाग पर बनी लघु कुलिकाओं में प्रदर्शित है। इन मूर्तियों में सौंदर्य बोध तथा पौराणिक कथानकों की अतिशयता है। यहां की कतिपय व्याल मूर्तियां बड़ी रोचक हैं। नोहटा का शिव मंदिर 10वीं शताब्दी के सुविकसित मंदिरों का प्रतिनिधित्व करता है। ऊंची पीठिका पर निर्मित इस मंदिर में गर्भगृह, अंतराल रंगमंडप, मुखमंडप आदि अंग हैं। इसका शिखर बौना है।
टिप्पणी- इसी काल का एक मंदिर मढ़ई में स्थापित किया गया था, जिसे राष्ट्रकूट नरेश तृतीय कृष्ण ने 947 ई. के पश्चात किसी समय बनवाया था। इसका सौंदर्यजनित प्रभाव बैजनाथ के मूर्तिशिल्प से साम्यता रखता है। लगभग 975 ई. के आसपास सतना जिले में मैहर के गोलामठ मंदिर का निर्माण हुआ। वास्तुकला एवं मूर्तिकला की दृष्टि से यह नोहटा की अपेक्षा अधिक विकसित प्रतीत होता है।
(a) उदयादित्त
(b) वाक्पति
(c) सिंधुराज
(d) राजाभोज
व्याख्या: (a) मालवा में निर्मित भूमिज मंदिरों में नीलकंठेश्वर उदयपुर (जिला विदिशा) सर्वोत्कृष्ट मंदिर है जो पूर्णरूपेण सुरक्षित है। इसका निर्माण परमार नरेश उदयादित्य (1050-1080 ई.) ने करवाया था। यह भूमिज शैली का निरंधार मंदिर है। पूर्वाभिमुख निर्मित इस देवालय के निर्माण योजना में गर्भगृह, अंतराल, गूढमंडप जिसमें तीन मुखमंडप हैं तथा एक वृहद् सभामंडप अलग से निर्मित हैं जिसके छत की ऊंचाई अपेक्षाकृत नीचे है। मंदिर के चारों तरफ आठ गौण देवताओं के मंदिर ऊंची जगती पर निर्मित हैं। मंदिर में प्रवेशार्थ वृहदाकार प्रतिहार मूर्तियां उपस्थित हैं। गर्भगृह ताराकृत वृत्तांकार मिश्रित है। सप्तरथ व सप्तभूम निर्माण साहित्य में वर्णित सप्तश्रृंग देवालय सर्वांगसुंदर है, जो शिव को प्रिय है।
वेदिबंध में खुर, कुंभ और कलश बंधन, अंतरपत्रों सहित उत्कृष्ट मापन में निर्माण हुआ है। प्रत्येक दिशा में पांच कूटों के साथ चतुर्दिक लताएं परिवर्तना पद्धति से निर्मित हैं जो सप्तश्रृंगों में लघु शिखरों द्वारा सात क्षैतिजाकार एवं पांच ऊर्ध्वाकार पंक्तियों में शिखर का निर्माण हुआ।
मंडोवर बंधनों द्वारा दो तलों में विभक्त है, निचले तल में गौण देव कुलिकायें एवं ऊपरी तल, जो अपेक्षया वृहदाकार है, में ब्राह्मण देवताओं की मूर्तियां प्रदर्शित करने की व्यवस्था है। शिखर की प्रत्येक चतुर्थांश में एकलता का निर्माण है जिसमें सुरसेनक के मध्य शैव प्रतिमायें प्रदर्शित हैं। शीर्षस्थ घिर्रीदार आमलक शिला, आमलसरी कलश एवं बीजपूरक हैं। ध्वजधारक भी सुरक्षित है। अंतर्विन्यास में मुखमंडप, अंतराल, गूढमंडप एवं गर्भगृह हैं। इनका छत समवर्णा शैली में निर्मित है। गूढमंडप में आसनपट्टक सलिलांतर अलंकरण से सुसज्जित है। कपिली की दीवाल में वृहदाकार शिव की प्रतिमाएं विद्यमान हैं। सुभगा वर्ग का प्रवेशद्वार मुखमंडप एवं नंदिनी वर्ग का प्रवेशद्वार गर्भगृह हेतु निर्मित है।
टिप्पणी: भूमिज मंदिरों की सूची में उद्धृत एक विशिष्ट वर्ग का मंदिर चतुरस्र देवालय का निर्माण मालवा में हुआ। शिव मंदिर, जामली जिला धार का उल्लेख समीचीन है। एकमात्र यह मंदिर जामली ग्राम के निकटस्थ पर्वत श्रृंखला के ढलान पर एक छोटी सी बावड़ी के पास ऊंची जगती पर निर्मित है। पंचरथ योजना एवं पंचभूत शिखरयुक्त यह मंदिर भूमिज वर्ग का विशिष्ट मंदिर है। एम.डब्ल्यू. मायकेल इसके निर्माण योजना में शास्त्रीय पद्धति वास्तुपुरुषमंडल सिद्धांत का प्रयोग स्वीकार करते है। अनुमानतः यह मंदिर लगभग 12वीं सदी में निर्मित हुआ होगा।
(a) राजा भोज
(b) राजा मुंज
(c) राजा सिंधुराज
(d) राजा भोगीराज
व्याख्या: (a) 11वीं सदी के उत्तरार्द्ध में निर्मित वृहदाकार भोजपुर का शिव मंदिर महान सम्राट भोज द्वारा निर्माण कराया जाना माना जाता है। इसे क्षेत्रीय लोग भोजेश्वर मंदिर भी कहते हैं। यह स्थल वर्तमान भोपाल नगर से 32 कि.मी. दूर रायसेन जिले में स्थित है। वर्गाकार निर्माण योजना में निर्मित मंदिर का मापन 65 वर्गफीट और भीतर 42 वर्गफीट है। मंदिर 115 फीट लंबे 82 चौड़े एवं 13 फीट ऊंचे जगती पर निर्मित है। बाह्य भित्तियों में किसी भी कोण पर रथ का निर्माण नहीं है। अतः यह विशिष्ट प्रकार का मंदिर है, जिसे सामान्यतः 'राक्षस प्रासाद' कहा जा सकता है, यद्यपि कतिपय विद्वान इसे 'स्वर्गारोहण प्रासाद' या 'समाधि' भी कहा है। मंदिर में प्रतिष्ठित विशाल शिवलिंग की ऊंचाई 7.5 फीट और परिधि 17.8 फीट है। 26 फीट ऊंचाई गढ़े हुए आधार पर स्थित है। प्रवेशद्वार 33 फीट ऊंचा है। गर्भगृह की कल्पना 'नवरंगमंडप' के रूप में की गई है, जो 60 फीट ऊंचे 4 स्तंभों और 12 भित्तिस्तंभों से गर्भगृह को सिद्धांत रूप में 9 उपखंडों में विभक्त करता है 'नाभिचंद्र' संरचना में सकेंद्रित घेरों में दीर्घ 'वितान' (छत) ऊपरी भाग पर समान रूप से विस्तृत खुली जगह में चरम बिंदु पर पहुंचा है। उत्तरी-पूर्वी कोने पर स्थित एक अस्थायी ढलान जो लगभग 300 फीट लंबी एवं 40 फीट ऊंची है, से निर्माण कार्य में प्रयुक्त होने वाले मापक्रम की सहज कल्पना की जा सकती है। मंदिर अर्द्धनिर्मित है इसकी पुष्टि इसके निकटस्थ स्थापत्य खंडों से होती है। दीवार के तीन दिशाओं में वातायन, कोष्ठकों से समर्थित है जो वृहदाकार होने पर भी संपूर्ण व्यवस्था में सामंजस्य स्थापित करता है मंदिर के निकटस्थ चट्टानों पर शिल्पियों के 1300 चिंहों एवं 500 शिल्पियों के नाम महत्वपूर्ण हैं जो यहां निर्माण कार्य में लगे थे। साथ ही मंदिर के संपूर्ण परिकल्पना का 'रेखांकन' आज भी विद्यमान है। इनमें मांगलिक चिंहों का भी समावेश है।
(a) नागरशैली
(b) मथुराशैली
(c) गंधार शैली
(d) पंचायतन शैली
व्याख्या: (a) चंदेल खजुराहो के निर्माता हैं। उनके बनवाये संसार प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिर भारतीय कलानिधि के मकरध्वज हैं। ये मंदिर नागर शैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं। वे आकार, सौंदर्य और मूर्ति संपदा के अनेक तत्वों की दृष्टि से भारत के किसी भी भाग में विद्यमान देवप्रासादों के तुलना में अद्वितीय हैं। यहां निर्मित शैव, वैष्णव और जैन मंदिरों की निर्माण शैली तथा शिल्पविधान में प्राय: समान तत्व मिलते हैं। ये मंदिर तलच्छंद (ग्राउंड प्लान) एवं ऊर्ध्वछंद (एलीवेशन) में निजी विशेषताएं रखते हैं। ये प्रायः ऊंची चौकी अथवा जगती पर बनाये गये हैं। इनके चारों ओर किसी प्रकार की दीवार नहीं है। इसी कारण आसपास के परिवेश से ये देवप्रासाद अत्युच्च प्रतीत होते हैं। भूस्थिति या तलच्छंद में ये लैटिन क्रास के आकार के हैं, जिनकी लंबी भुजा पूर्व से पश्चिम की ओर बनाई गई है। मंदिरों के तीन प्रधान अंग गर्भगृह, मंडप और अर्द्धमंडप हैं। गर्भगृह और अर्द्धमंडप के बीच अंतराल है। यहां पूर्ण विकसित कला शैली के मंदिरों में प्रदक्षिणापथ से जुड़े हुए महामंडप का भी निर्माण किया गया है। आयोजन के समान इनके ऊर्ध्वछंद की भी कुछ विशेषताएं हैं। मंदिर की जगती पर लंबाकार कोन्मुखी अधिष्ठान है, जिसकी पंक्तिबद्ध सज्जापट्टियां जगती को दृढ़ता के साथ जकड़े हैं। इस प्रकार धूप-छांव की भी सुंदर व्यवस्था हो गई है। अधिष्ठान के ऊपर का भाग गर्भगृह या परिक्रमा आदि मंदिर के आंतरिक भागों की बाह्य दीवारें हैं, जिनमें कक्षासन या गवाक्ष हैं। इनमें अत्यंत मनोरम तथा चित्ताकर्षक मूर्तियों की दो या तीन अलंकरण पट्टियां हैं। मंदिरों के भीतरी भाग की अपेक्षा बाहरी भागों पर इन मूर्तियों की संख्या कहीं अधिक है। अकेले कन्दारिया - महादेव मंदिर में ही इनकी संस्था लगभग साढ़े छह सौ है। 9 वातायनों या झरोखों से मंदिर के भीतर पहुंचने वाला प्रकाश वहां के तिमिराच्छन्न वातावरण को आलौकिक बनाने में सहायक होता है। पर्सी ब्राउन का कथन है कि "भारतीय वास्तुकला के क्षेत्र में इन मनोहारी गवाक्षों के समान बहुत कम ऐसी हृदयग्राही कल्पनाएं पाई जाती हैं, जो अपने रचना सौष्ठव तथा कला सौंदर्य की दृष्टि से, इनकी तुलना में अपने उद्देश्य की उचित पूर्ति करती हों।" 80 जंघा के ऊपर मंदिर की छत या शिखर है। ये शिखर एक धुरी पर निर्मित है और क्रमश: ऊंचे-नीचे हैं तथा इनकी परिणति गर्भगृह के ऊपर निर्मित सर्वोच्च शिखर में होती है। अर्धमंडप, मंडप, महामंडप के पृथक-पृथक स्तूपाकार शिखर हैं, किंतु मध्यवर्ती शिखर ऊंचा तथा बक्राकार है ये शिखर आरोह क्रम से ऊंचे उठते चले गये हैं। सबसे नीचा शिखर प्रवेश मंडप का है। और सबसे ऊंचा गर्भगृह का शिखर के शीर्ष भाग पर एक बड़ा आमलक, उस पर चंद्रिकाओं का क्रम, पुन: एक छोटा आमलक, उस पर एक कलश और सबसे ऊपर बीजपूरक है। शिखर शैली के इन मंदिरों की कल्पना इस तथ्य की परिचायक है कि उनका निर्माण देवों के आवास स्थल कैलास या मेरू पर्वत के आधार पर किया गया है। प्रधान वक्ररेखाओं के लयबद्ध सन्निवेश से शिखर के आकार का निर्माण मनोरम ढंग से किया गया है। बड़े शिखर की मूलमंजरी के चारों ओर पूंजी भूत उरुभंगों की व्यवस्था ने मंदिर को अनुपम वास्तु के रूप में परिणत कर दिया है। इससे इसके शरीर में वैचित्रेय तथा उच्छ्राय गांभीर्य के भावों को बल मिला है।
प्रवेश मंडप एक छोटा आयताकार प्रवेश मार्ग है, जो मंडप में प्रवेश करने पर सामान्यतः कुछ चौड़ा हो जाता है। अर्द्धमंडप और मंडप के दोनों ओर ढलुवा कक्षासन से घिरे हैं। उनकी छतें कुड्यस्तंभों तथा व्यालस्तंभों पर आधारित हैं। मंडप के पश्चात महामंडप है। इसके दोनों ओर पक्षावकाश हैं, जिनमें बाहर की ओर बढ़े हुए वातायन बने हैं। सांधार प्रासाद मंदिरों के प्रदक्षिणापथ में दो अतिरिक्त पक्षावकाश निर्मित हैं, जिनके गवाक्षों से मंदिर की अंतः प्रदक्षिणा आलोकित होती है कहीं-कहीं मंदिरों की पिछली भित्ति पर भी एक वातायन है, जिससे प्रदक्षिणापथ का पिछला भाग प्रकाशित होता है। बड़े मंदिरों के महामंडप के बीच में विन्यस्त चार स्तंभ छत की कड़ियों को सहारा देते हैं। महामंडप अंतराल द्वारा गर्भगृह से जुड़ा है। गर्भगृह में प्रवेश करने हेतु अलंकृत द्वार पर एक या अनेक चंद्रशिलाएं बनाई गई हैं।
मंदिरों के अतभाग की सादी और प्रभावकाशी आयोजना में द्वार स्तंभों, कड़ियों और वितानों की प्रचुर सज्जा और मूर्ति संपदा विस्मयकारी है। मंदिरों के वितान की कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति अपूर्व कुशलता से की गई है। छत के तलभाग में दिलहेदार वितान के जटिल ज्यामितीय और फूलकारी अभिप्रायों के निर्माण से प्रवीण शिल्पियों का असाधारण कौशल परिलक्षित होता है। अलंकृत वितान से भी अधिक विलक्षण आलंबन बाहुओं पर अप्सरा और शालभंजिका मूर्तियों को विभिन्न चपल भाव-भंगिमाओं में अद्भुत कुशलता के साथ कीचकों के मध्य प्रस्तुत किया गया है। ये अप्सराएं कामोत्तेजक अंगोपांगों, आकर्षक मुद्राओं, उत्कृष्ट परिसज्जा के कारण पूर्व मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला की श्रेष्ठ उदाहरण हैं। इनकी तुलना भारत की इतर कला शैलियों में दुर्लभ है। सांधार प्रासाद प्रकार के मंदिरों में दो या तीन सज्जा पट्टियां हैं। गर्भगृह के और सज्जायुक्त अलंकरणों का यह एक सीमित प्रदर्शन है।
(a) हरिभवन
(b) विष्णभवन
(c) हरिसदन
(d) विष्णुसदन
व्याख्या: (c) यह मंदिर कुछ विद्वानों के अनुसार 'सहस्रबाहु' का है परंतु भारतीय धार्मिक परंपरा में असुरों के मंदिर निर्माण को वर्जित माना गया है। अभिलेख में स्पष्टतः इस मंदिर को 'भवन हरे' और 'हरिसदन' कहा गया है। अतः यह एक विष्णु मंदिर है, सहस्रबाहु नामक असुर का नहीं। इसका निर्माण कार्य 1093 ई. में विधिवत पूर्ण हुआ था।
यह मंदिर कच्छपघात कालीन स्थापत्य कला का अप्रतिम उदाहरण है। इसे एक ऊंचे अधिष्ठान पर बनाया गया है जिसकी तीन दिशाओं में प्रवेश हेतु मुखमंडप निर्मित हैं। इसकी निर्माण योजना में मुखमंडप, द्वितल अर्धमंडप, त्रिदल महामंडप, द्वितल अंतराल और गर्भगृह आदि वास्तु अंग नियोजित हैं। महामंडप की पार्श्व भित्तियों में लघु कक्ष बने हैं। इनमें मूर्तियां प्रतिष्ठित थीं जो अब नहीं हैं महामंडप की छत अलंकृत स्तंभों पर आश्रित है। वितान क्षिप्त प्रकार के हैं। मंदिर की छत संवर्णा विधि से निर्मित है। स्तंभों, वितानों और मंदिर की भित्तियों पर देवी-देवताओं, अर्द्ध देवताओं और यक्ष, गंधर्व, विद्याधर एवं किन्नरों की मूर्तियां सुसज्जित हैं। गर्भगृह में प्रतिष्ठित मूल प्रतिमाएं अब नहीं हैं।
मंदिर का शिखर अत्यंत विशाल एवं भव्य था, जो वर्तमान में खंडित है। इस उत्तुंग शिखर का वर्णन अभिलेख में किया गया है जिसमें इसे कैलाश से भी ऊंचा बताया गया है। "मंदिर के शिखर पर स्वर्णमंडित ध्वजदंड है जिस पर आरोपित ध्वजा चांदनी के समान धवल है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो शंभु की जटाओं पर स्वर्ग से गंगा का अवतरण हो रहा हो।" मंदिर की बाह्य एवं अंतः भित्तियों पर अनेक देवी देवताओं की सुंदर मूर्तियां प्रदर्शित हैं। इनके लक्षण पूर्णत: शिल्पशास्त्रों के अनुरूप नहीं हैं। अतः यह मंदिर भागवत धर्म की तांत्रिक परंपरा से संबद्ध प्रतीत होता है। समवित लक्षणों वाली मूर्तियों की बहुलता है। पांचरात्र परंपरा में विष्णु की समवित प्रतिमाओं और तत्संबन्धी दर्शन की विशद व्यारव्या मिलती है। अतः यह मंदिर निश्चित ही पांचरात्र परंपरा से प्रभावित है, जिसमें विष्णु के व्यूहों और व्यूहांतरों के अंकन किये गये हैं। अभिलेख में उद्धृत "श्रपतिविभ्राजो द्विजसत्तभानु गाधीजावासोनृसिंहान्वितः " (श्लोक - 29) पंक्ति इसका प्रमाण है।
महीपाल ने 'सास' नामक बृद मंदिर में बैकुंठ के साथ अनिरूद्ध की भी मूर्ति स्थापित की थी जो मुक्ताशैल की बनी हुई थी तथा अनिरूद्ध की एक अन्य मूर्ति के लिये अपेक्षाकृत एक लघु मंदिर का निर्माण कराया जिसे "बहू" के मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस लघु मंदिर में अच्युत, वामन आदि व्यूहांतरों तथा एक अन्य देवता की (संभवत: उषा) की में मूर्ति थी। अच्युत और वामन की मूर्तियां अष्ट धातु तथा तीसरे देवता की मूर्ति राजवर्त पत्थर की बनी हुई थी। अभिलेख में बैकुंठ को " श्रीपति" और अनिरूद्ध को "उषापति" कहा गया है। अतः विष्णु भार्या "श्री" और अनिरूद्ध भार्या उषा के पारस्परिक संबंध (सास-बहू) के आधार पर लोक परंपरा में यह मंदिर सास-बहू मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
(a) अधिकांश मंदिर निरंधार है। इनमें एक त्रिअंग गर्भ गृह, कपिली तथा एक मुखचतुश्की (मंडप ) आदि वास्तुअंग बनाए गए है। सांधार मंदिर के रूप में एक मात्र प्रतिनिधि उदाहरण सिहोनिया का ककनमठ नामक शिव मंदिर है।
(b) सामान्यतः ये मंदिर पद्मपीठ पर खड़े किए गए है। इनके जंघा भाग पर मूर्तियों की एक पंक्ति आद्योपांत प्रदर्शित की गई है।
(c) मंडप या महामंडप में लगे स्तंभ बहुकोणीय है। चारों कोणों में दंड के मध्य भाग में कीर्तिमुख से निकलती लंबी किंकिणिका का अलंकरण है। ये स्तंभ एक वर्गाकार कुंभक के आधार पर खड़े है। इनके शीर्ष भाग पर घट पल्लव अभिकल्प प्रदर्शित किए गए है, जिनके ऊपर कुमारवेविकाएं (ब्रैकेट) बनाई गई।
(d) प्रवेशद्वार के पेड्या (निचला बंधन) भाग पर एक तरफ मकरवाहिनी गंगा और दूसरी तरफ कूर्मवाहिनी यमुना की खड़ी आकृतियां प्रदर्शित है, जिनके सिर के ऊपर नागफण छत्र की भांति अंकित किए गए है। उत्तरंग पर सप्तमातृकाएं या नवग्रहों की पंक्तियां बनाई गई है। दोनों पाश्र्वों में एक तरफ शिव और पार्वती और कभी विष्णु एवं लक्ष्मी की मूर्तियां सज्जित है।
व्याख्या: (d) अधिकांश मंदिर निरंधार है। इनमें एक त्रिअंग गर्भ गृह, कपिली तथा एक मुखचतुश्की (मंडप ) आदि वास्तुअंग बनाए गए हैं। सांधार मंदिर के रूप में एक मात्र प्रतिनिधि उदाहरण सिहोनिया का ककनमठ नामक शिव मंदिर है। सामान्यतः ये मंदिर पद्मपीठ पर खड़े किए गए हैं। इनके जंघा भाग पर मूर्तियों की एक पंक्ति आद्योपांत प्रदर्शित की गई है। मंडप या महामंडप में लगे स्तंभ बहुकोणीय है। चारों कोणों में दंड के मध्य भाग में कीर्तिमुख से निकलती लंबी किंकिणिका का अलंकरण है। ये स्तंभ एक वर्गाकार कुंभक के आधार पर खड़े है। इनके शीर्ष भाग पर घट पल्लव अभिकल्प प्रदर्शित किए गए हैं, जिनके ऊपर कुमारवेदिकाएं (ब्रैकेट) बनाई गई हैं। प्रवेशद्वार के पेड्या (निचला बंधन) भाग पर एक तरफ मकरवाहिनी गंगा और दूसरी तरफ कूर्मवाहिनी यमुना की खड़ी आकृतियां प्रदर्शित हैं, जिनके सिर के ऊपर नागफण छत्र की भांति अंकित किए गए हैं। उत्तरंग पर सप्तमातृकाएं या नवग्रहों की पंक्तियां बनाई गई हैं। दोनों पाश्र्वों में एक तरफ शिव और ब्रह्मा और कभी विष्णु एवं ब्रह्मा की मूर्तियां सज्जित हैं।
टिप्पणी- उक्त लक्षण श्योपुर जिलान्तर्गत और ग्वालियर के आसपास स्थित कच्छपघात मंदिरों में दृश्टव्य हैं। ये मंदिर विशेषतः 10वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में निर्मित हुए थे। 10वीं शताब्दी ई के 9वें दशक से लेकर 11वीं शताब्दी के अंतिम दशकों के मध्य की कालावधि में कच्छपघात राजवंश के प्रोत्साहन में निर्मित मंदिर का आकार-प्रकार अचानक विशाल रूप में प्रकट हुआ जिसके ज्वलंत उदाहरण गवालियर दुर्ग स्थित सास-बहू मंदिर, पढ़ावली का शिव मंदिर और सिहोनिया स्थित शैव मंदिर ककनमठ हैं। इन मंदिरों को स्पष्टतः कच्छपघात शैली के रूप में चिह्नित किया जा सकता है। उक्त मंदिरों के निर्माण में शैव एवं वैष्णव धर्म के तांत्रिक मतों की पृष्ठभूमि स्पष्टतः परिलक्षित है। सास-बहू मंदिर का निर्माण वैष्णव धर्म के पांचरात्र मत में समाहित तत्वों की वैज्ञानिक पृष्ठभूमि पर किया गया है। इसी तरह ककनमठ में शैव धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों के समन्वय की छटा देखने को मिलती है। यह छवि इस मंदिर की भित्तियों पर प्रदर्शित देवप्रतिमाओं के माध्यम से प्रकट हुई है। पढ़ावली के शिवमंदिर के महामंडप में भित्तियों तथा वितान में रामायण, महाभारत तथा पौराणिक दृश्यों की अनुपम छटा देखने को मिलती है।
(a) राजा सूर्यपाल
(b) राजा महीपाल
(c) राजा रत्नपाल
(d) राजा कीर्तिपाल
व्याख्या: (d) सिहोनिया, ग्वालियर से उत्तर-पूर्व में 72 किमी. की दूरी पर आसन नदी के बांये किनारे पर स्थित है। इस स्थान को महीपाल कच्छपघात के अभिलेख (सास-बहू-अभिलेख) में अद्भुत नगर की संज्ञा दी गई है। कनिंघम ने 1864-65 ई. में इस गांव का भ्रमण किया था। इस मंदिर का निर्माण कच्छपघात शासकों के शासनकाल में हुआ था। कनिंघम ने इस मंदिर को कोकनपुर मठ कहा है। सास-बहू मंदिर अभिलेख में इस विलक्षण मंदिर को शिव-पार्वती को समर्पित बताया गया है, जिसका निर्माण कच्छपघात नरेश कीर्तिपाल ने 1015-1035 ई. में करवाया था। इस लेख में सिहोनिया को सिंहपानीय कहा गया है। मंदिर के गर्भगृह की बाह्य भित्ति पर एक जगह पीछे की तरफ सं. 1044 तिथि उत्कीर्ण हैं, जो इस मंदिर के निर्माण की शुरूआत 987 ई. में सिद्ध करता है।
ग्वालियर क्षेत्र का यह सबसे ऊंचा मंदिर है जिसकी कुल ऊंचाई लगभग 100 फीट है। यह मंदिर एक 3.5 मीटर ऊंचे चबूतरे पर स्थित है। इसके सामने नंदी मंडप भी है जो मुख्य मंदिर की जगती से जुड़ा हुआ है। इसके अधिष्ठान में भिट्ट, कुम्भ, कलश, जाड्य कुम्भ, अंतर्पटिका, कपोतिका छाद्य वसंत पट्टिका आदि बंधन हैं। मंदिर की जगती पर जाने के लिए लगभग 13 सीढ़ियां हैं। यह मंदिर पंचरथ योजना पर निर्मित है। इसकी निर्माण योजना में गर्भगृह, अंतराल, महामंडप और मुखमंडप का नियोजन किया गया है। यह एक सांधार प्रासाद है। मंदिर का अधिष्ठान, जगती या चबूतरे पर किये गये अलंकरण जैसे बंधनों से अलंकृत है। अधिष्ठान के चारों ओर देव कुलिकाएं निर्मित है, जिनमें गणेश, ब्रह्मा, शिव, पार्वती, कार्तिकेय और विष्णु तथा कल्याणसुंदर शिव की मूर्ति प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य कुलिकाओं में गजलक्ष्मी, सरस्वती, कौमारी, दुर्गा, पार्वती, गौरी और वारूणी आदि देवियों की मूर्तियां प्रदर्शित है।
(a) 15वीं शताब्दी
(b) 14वीं शताब्दी
(c) 10वीं शताब्दी
(d) 11वीं शताब्दी
व्याख्या: (a) मान मंदिर तोमर कालीन वास्तुकला का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसका निर्माण 1508 ई. में पूर्ण हुआ था। यह ग्वालियर दुर्ग के अंदर स्थित है। मेजर कनिंघम के अनुसार तोमर कालीन स्थापत्य के अंतर्गत यह सर्वश्रेष्ठ है। मान मंदिर के दो अंग है। एक अंग राजा का निवास था और दूसरे अंग में, प्रवेश द्वार से लगे हुए भाग में परिचारकों का आवास स्थल था। इस महल की कुल नाप 300x160 फीट है, जबकि पिछला हिस्सा महल के परिमाण का एक तिहाई (160×100) फीट है। महल में पूर्व की तरफ दो तल है तथा दो तल भूमिगत है। एक तल में दो मुक्त प्रांगण है। यह प्रासाद धरती से 300 फीट ऊंचा है।
पहला प्रांगण 33 वर्ग फीट का है जिसके पश्चिम में नृत्य एवं संगीत का सभागार है। यह सभागार 33x20.5 फीट है। इसके तीन तरफ प्रदक्षिणापथ जैसी वीथिका है। इस तल की उत्तर दिशा में एक अन्य नृत्यागार है जिसकी नाप 34x16 में फीट है। इसके चारों ओर बालकनी है। बालकनी में जालीदार झरोखे हैं। नारायणदास ने “छिताईचरित" नामक ग्रन्थ महल का वर्णन किया है- "बने हिण्डोरे कंचन खंभा, मानहु उपजे उद्धति सयम्भा।" भूमिगत दो तलों में एक में वृत्ताकार (39 फीट व्यास) मंडप, जो 8 स्तंभों पर आश्रित है, निर्मित है। इसकी पार्श्व भित्तियों में छोटे-छोटे वर्गाकार एवं वृत्ताकार वातायन निर्मित हैं जिनसे प्रकाश एवं वायु की समुचित व्यवस्था की गयी है। इस कक्ष के नीचे केसर कुंड है। मुगल काल में दोनों भूमिगत तलों को महत्वपूर्ण राजनीतिक बंदियों के लिये कारागार के रूप में प्रयोग किया जाता था। इसी कारागार में मुराद को भी बंदी बनाया गया था।
मान मंदिर में प्रयुक्त अलंकारिक अभिकल्पों में मकर, हंस, गज, सिंह, मयूर, कपोत तथा पुष्प-पत्र लताएं और में कदली वृक्षों की आकृतियां प्रमुख हैं। इन अभिकल्पों को उत्कीर्णन पद्धति से तथा टाइल्स के माध्यम से भी प्रदर्शित किया गया है। नीली, हरी और पीले रंग की टाइल्स का प्रयोग महल की बाह्य सज्जा के रूप में किया गया है। इस महल के दूसरे तल के आयताकार मंडपों (बरामदों) की धरणियों पर नृत्य, वादन एवं गायन करती मानव आकृतियां जाली के रूप में (स्क्रीन वर्क) प्रदर्शित हैं। ये अंकन पश्चिम भारत के पोथी-चित्रों से साम्य रखते हैं, विशेषत: चौरपंचाशिका नामक पोथी चित्रों से यह अंकन साम्य रखता है। इस महल की अनेक संकरी वीथिकाएं भूल-भुलैया जैसी प्रतीत होती हैं।
मान मंदिर में शिल्पकारों ने जालीदार नक्काशी का अत्यंत सूक्ष्म प्रदर्शन किया है। यह एक राज्याश्रित शिल्प था, जो तोमर शासकों के संरक्षण में विकसित हुआ था, परंतु तोमर वंश के पराभव के पश्चात् उक्त शिल्पकारों ने जीविकोपार्जन हेतु ग्वालियर छोड़कर अन्य क्षेत्रों में शरण ली। आगरा और फतेहपुर सीकरी के महलों और दुर्गों की नक्काशी ग्वालियर के शिल्पकारों द्वारा मुगलकाल में की गयी थी। इस जालीदार नक्काशी को "ग्वालियरी झिलमिली" के नाम से प्रसिद्धि मिली। इस शिल्प विधा के जनक खेडू सूत्रधार थे।
(a) गुणीदास
(b) गुणदास
(c) सुधीदास
(d) भगवानदास
व्याख्या: (b) गुजरी महल मानसिंह तोमर की प्रेयसी एवं पत्नी गूजरी हेतु मानसिंह द्वारा बनवाया गया था। मेजर जे. बी. कीथ ने इस गूजरी मंदिर के वास्तु-शिल्प की प्रशंसा की है। यह महल लगभग 300 फीट लम्बा और 200 फीट चौड़ा है। महल के बाहरी भाग में गुंबदनुमा बुर्जे बनी हैं। छज्जे स्तंभों पर आश्रित हैं, जिनके शीर्ष भाग पर तरंग पोतिकाएं निर्मित हैं। महल के मध्य में एक विशाल सभागृह है, जिसके चतुर्दिक वातायन बने हैं। महल की बाह्य भित्तियों पर रंग-बिरंगी टाइल्स जड़ी हुई थी, जो वर्तमान में नष्ट हो चुकी है। महल के प्रवेश द्वार के दोनों ओर छोटी-छोटी गजाकृतियां निर्मित हैं। नारायणदास कृत छिताईचरित में गार्गी तथा गुणदास को मान मंदिर तथा गूजरी महल का प्रमुख सूत्रधार कहा गया है। वर्तमान में इस महल में मध्य प्रदेश राज्य पुरातत्व विभाग का संग्रहालय स्थापित है। इस महल का निर्माण वि.सं. 1551-1494 ई. के पूर्व किया गया था।
टिप्पणी: ग्वालियर दुर्ग के परिसर में विक्रम मंदिर निर्मित है, जो तोमर राजा विक्रमादित्य का महल था। बाबर ने विक्रम मंदिर और मान मंदिर को 15 सितम्बर, 1528 में देखा था, जिसका उल्लेख उसने अपनी आत्मकथा (बाबरनामा) में किया है। इस प्रकार तोमर काल भारतीय कला के अंतर्गत एक स्वर्णिम काल के रूप में प्रतिष्ठित था।
(a) धार का किला
(b) लाट मस्जिद
(c) मलिक मुंगीस की मस्जिद
(d) जामी मस्जिद
व्याख्या: (a) मालवा की स्थापत्य कला का प्रारंभ धार और मांडू के भवनों से होता है। इनमें प्रथम निर्माण धार का किला जिसे मुहम्मद तुगलक ने 1325 ई. और 1340 ई. के मध्य बनवाया था। मालवा के प्रारंभिक भवनों में चार मस्जिदें प्रमुख थीं जिनका निर्माण 1400 ई. से लेकर 1425 ई. के मध्य हुआ। इनमें 'कमाल मौला मस्जिद' और 'लाट मस्जिद' धार में हैं तथा दिलावर खां की मस्जिद और मलिक मुगीस की मस्जिद मांडू में है। इनका निर्माण जैन मंदिरों की ध्वस्त सामग्री से हुआ। इस कारण इन भवनों में हिंदू-मुस्लिम शैलियों का समन्वय दिखाई देता है।
मालवा के स्थापत्य के दूसरे चरण का प्रारंभ होशंगशाह द्वारा राजधानी बनाए जाने पर शादियाबाद (मांडू) में हुआ। मांडू के सभी भवन दुर्ग के अंदर स्थित हैं। मांडू को उसके प्राकृतिक सौंदर्य के कारण भारत के सभी दुर्ग नगरों में सबसे शानदार नगर की संज्ञा दी गई है। मांडू दुर्ग की प्राचीरें चारों ओर 25 मील लंबी बसाल्ट पत्थर की हैं। दुर्ग की प्राचीर के चारों ओर 10 मेहराबी द्वार हैं। ये द्वारा एक समय में नहीं निर्मित हुए हैं। इन्हें मालवा के सुल्तानों ने समय-समय पर बनवाया होगा। इनमें से अनेक ध्वस्त हो चुके हैं। उत्तरी द्वार "दिल्ली दरवाजा" कहलाता है। शिल्प की दृष्टि से यह बहुत सुंदर है। इस द्वार को देखने से मांडू के भवनों के प्रभावशाली होने का अनुमान लगाया से जा सकता है। इस द्वार के आगे और पीछे भाले की नोकनुमा नुकीली मेहराबी तोरण है। तारापुर दरवाजा नगर के दक्षिणी-पश्चिमी किनारे पर है।
मांडू दुर्ग नगर में अब केवल 40 उल्लेखनीय भवन रह गये हैं। "जामी मस्जिद" मांडू की सर्वश्रेष्ठ इमारत है। इसका निर्माण होशंगशाह के समय प्रारंभ हुआ था और 1454 ई. में इसे महमूद खिलजी ने पूर्ण करवाया था। फर्ग्युसन ने इसे भव्यता और सादगी में मध्य युग के प्रसिद्ध स्मारकों में से एक कहा है। जान मार्शल ने जामी मस्जिद को " भारत के स्थापत्य के क्षेत्र में महान निर्माण की संज्ञा दी है। इसकी प्रमुख विशेषता विशाल गुंबद प्रवेश द्वार से नीचे की ओर जाती हुई सीढ़ियां हैं।" इस मस्जिद की विशिष्टता इसके अलंकरण और सौंदर्य में न होकर इसकी योजना, समानता और नापजोख में है। इस मस्जिद को सामने से देखने पर प्रसादत्व झलकता है।
(a) नासिरशाह खिलजी
(b) बाजबहादुर
(c) महमूद खिलजी
(d) होशंगशाह
व्याख्या: (c) होशंगशाह का मकबरा प्रसिद्ध इमारत है। इसका निर्माण महमूद खिलजी प्रथम ने करवाया था। यह जामी मस्जिद के पीछे है। इसके निर्माण की शैली और सिद्धांत नये हैं क्योंकि उस समय का यह भारत का प्रथम मकबरा था, जो पूरा सफेद संगमरमर के पत्थरों से बना है। इसका विशाल सफेद गुंबद प्रभाव दर्शाता है। यह 6 फीट ऊंचे, 100 फीट वर्गाकार चबूतरे पर स्थित है, मकबरे का प्रवेश द्वार दक्षिण में है और ऊपर अधखिला कमल हैं। शाहजहां के शासन काल में ताजमहल के निर्माण के समय इस होशंगशाह के मकबरे की शैली का सम्राट की आज्ञा से चार शिल्पज्ञ अध्ययन करने मांडू आये थे, इसका प्रमाण दक्षिणी दरवाजे पर अंकित एक अभिलेख है जो यह दर्शाता है कि ताजमहल के वास्तुशिल्प पर होशंगशाह के मकबरे का प्रभाव था।
टिप्पणी: जामी मस्जिद के बिल्कुल सामने कई इमारतों का समूह है। जो "अशरफी महल" के नाम से प्रसिद्ध है। इस समूह में कई भवन हैं, जो होशंगशाह के शासन काल से महमूद खिलजी के काल तक निर्मित किये गये थे। ये अब ध्वस्त अवस्था में हैं। इनमें मदरसा महमूद, खिलजी का मकबरा और विजय स्तंभ है, जो राणा कुम्भा को पराजित करने के उपलक्ष्य में निर्मित किया गया था। इनके निर्माण में हरे संगमरमर के पत्थरों का उपयोग हुआ है। यद्यपि ये अब अवशेष हैं, पर ये उच्च कोटि की निर्माण कला का परिचय देते है। मालवा में होशंगशाह गोरी और महमूद खिलजी प्रथम के समय जिन भवनों का निर्माण हुआ, उनकी शैली शास्त्रीय शिल्प पर आधारित थी। इनमें दो इमारतें "हिंडोला महल" और "जहाज महल" हैं। 'हिंडोला महल'' दरबार हाल ' और 'जहाज महल' आवासीय महल थे। इनका निर्माण होशंगशाह के समय प्रारंभ हुआ था ये पूर्ण महमूद खिलजी के समय हुए हिंडोला महल टी (T) आकार है, इसकी मोटी दीवारें झुकी हुई हैं जो झूले (Swing) का आभास देती हैं। यह हैं इमारत विशाल और प्रभावोत्पादक है। 'जहाजमहल' मालवा की स्थापत्य शैली के क्लासिकल युग का चरमोत्कर्ष था। यह बहुत ही सुंदर दो मंजिला भवन मुंज और कपूर जलाशयों के किनारों पर 360 फीट तक फैला है। यह दूर से जहाजनुमा लगता है। इसकी दीवारें भूरे और बलुआ पत्थरों की हैं व फर्श चमकीलें टाईल्स की हैं। यह मांडू का बहुत ही सुंदर महल है। इसमें मालवा की स्थानीय और मुस्लिम स्थापत्य की शैलियों का अद्भुत समन्वय है।
(a) होशंगशाह
(b) महमूद खिलजी
(c) नासिरशाह खिलजी
(d) बाजबहादुर
व्याख्या: (c) मध्य प्रदेश के धार जिले में बाजबहादुर महल का निर्माण नासिरशाह खिलजी ने करवाया था। इस महल में भोग-विलास के सभी साधन जैसे- सुंदर हमाम, छोटे उथले कुंड और जगह-जगह फव्वारे हैं। इसका धरातल और फर्श चित्र युक्त टाइल्स से सुसज्जित हैं। दूसरी प्रसिद्ध इमारत रूपमती का मंडप है, जो मांडू पठार के दक्षिणी स्कंध (Spur) पर स्थित है। इससे 1200 फीट नीचे निमाड़ क्षेत्र के मैदान हैं। यह कहा जाता है कि पूर्व में इसका निर्माण एक निगरानी बुर्ज (Tower) के लिए किया गया था, बाद में इसका संबंध रूपमती से जोड़ दिया गया। इस चरण की अन्य इमारतें नीलकंठ महल, चिश्ती खां का महल और गदाशाह का महल आदि हैं। स्थापत्य की जिस शास्त्रीय शैली का विकास मांडू में हुआ था, उसका एक उदाहरण अशोकनगर चंदेरी के पास महमूद खिलजी द्वारा 1445 ई. में निर्मित सात मंजली इमारत कुशक महल है। मांडू की जामी मस्जिद की शैली में चंदेरी दुर्ग में भी सुल्तान महमूद खिलजी ने एक मस्जिद का निर्माण किया था। इस युग के अनेक स्मारक मालवा के विभिन्न क्षेत्रों में पाये गए हैं।
(a) सैयद मुहम्मद कादिरी
(b) फारुकी सुल्तान आदिल खान द्वितीय
(c) शेख जलाल कादरी
(d) शाह मंसूर
व्याख्या: (b) फारुकी सुल्तान आदिल खान द्वितीय (1457-1503 ई.) ने बुरहानपुर में एक किले का निर्माण करवाया था, जो वर्तमान में बादशाही किले के नाम से जाना जाता है। ऐसा लगता है कि 1407 ई. में बुरहानपुर की स्थापना के तुरंत बाद जिस स्थान पर मलिक नासिर ने अपना महल बनवाया उसे सुरक्षित बनाने के लिए आदिलखान द्वितीय ने उसी स्थान पर यह किला बनवाया और साथ में भीतर इमारतें बनवाई। नष्टप्राय किला ताप्ती नदी के दाहिने तट पर लगभग 80 फीट अर्थात 24 मीटर ऊंचा है। ऊपरी हिस्से में, जो विस्तृत खंडहर है, उनसे भवनों के रूप और शैली का कुछ आभास होता है। इन खंडहरों में वे निर्माण भी शामिल हैं, जो आदिलखान के बाद के फारुकी शासकों ने और बाद में मुगलों ने बनवाए थे।
किले का मुख्य प्रवेश द्वारा शहर की ओर खुलता है। प्रवेश द्वार से भीतर जाने पर सहन दिखता है जहां कभी बगीचा रहा होगा। इसके दोनों बाजुओं में ईंट व पत्थर की दीवारें हैं। इसी दीवार से लगी हुई पत्थर की विशाल इमारत के खंडहर है। यह इमारत रहने के काम आती रही होगी। इस खंडहर के कमरों के द्वार मेहराबदार है, जिन पर छत टिकी है।
बगीचे को पार करने के बाद पत्थर का बना मुख्य हिस्सा है, जो एक मीटर ऊंचे चबूतरे पर बना है। इसका दालान काफी चौड़ा है और इसके दूसरे सिरे पर कमरे बने हुए है। किले का यह मुख्य हिस्सा है। मुख्य भाग के कमरे की छत गिर चुकी है। इमारत का निचला तल ताप्ती नदी की ओर है और आयताकार है। इसकी लम्बाई में छः सामानांतर दोहरी मेहराबें बनी हैं, जिनके कारण एक लंबा गलियारा सा बन गया है। शाही किले के अवशेषों से पता चलता है कि यहां उस समय की जलप्रदाय प्रणाली से भूमिगत सुरंग के जरिए पानी पहुंचता था। दो संकरे कुंए अभी भी इसके प्रमाण हैं। महल के विभिन्न हिस्सों और ऊपर की मंजिलों में जहां-तहां मिट्टी की पाइप लाइन दीवारों में चिनी गई दिखती है। इन पाइप लाइनों से महल में पानी वितरित होता था।
किले की सुरक्षा के लिए 3 मीटर चौड़ी एक दीवार बनी है जिसे नौगजी कहा जाता है। विदेशी यात्री विलियम फिंच 1610 ई. में बुरहानपुर आया था। उसने अपने विवरण में बुरहानपुर किले के बारे में लिखा है- शहर के उत्तर-पश्चिम की ओर नदी के किनारे पर एक विशाल मजबूत किला बना है। नदी में एक हाथी की मूर्ति बनी है, जिसका सिर लाल रंग से रंगा हुआ है तथा कई भारतीय इसकी पूजा करते हैं।
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